ज्यादा अपनी : कम परायी | Jyada Apni : Kam Parayi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कश्मीर की याद आते ही बह सन बुछ आाँघों में घूम जाता है जो इस हरीग खुनसुर्त घाटी के बारे में सुना यो पढ़ा घा। १५३७-१८ का जमाना पतन फपये गाधिक आग घीर पिंयों मे एफ रे सहामणाव थो हर मररो कश्मीर जाना जेस बे को सरझुरी अंग समझते थे । उनके दाइंग-कंस में नेन्सर चीख्टों में जड़े उग अनुपस सौर वे के हि सकधा [से दस . ८ नुलभंग के मदान मे जहां दिखी ही दल दी । गसि सू एक बाहरी साएन्या रास्ता बा से री एक फाटण सका जाता है । कंिज हि लग ऐसे भंग पट्टी है जैसे किसी में बनों सफे मधिया बीस छत पर. गा ही हो भोग थो छत को सीसे सके फैल आयी हो। पर गहरी नफॉसी पाघ मे सर नही शिव गले में रंगीन सफल जप गो र. पुन 1 जदिनधाली पक यवली में साध खं कह पीला में वड़ा खूबसूरत ह्ाउसन्वीट। शिकफियों के सफ़े पे हम न तफन ऊपर छत गर सीट संपीर शपीपाया 2 । फ कद सो नव दपर गे फूलों हुई है नीचे घहीं पिन घी नली सना न दिखीं र चार चौपे पास दो प हीं। 0 1 ९ सबारि नहागीश मे शोर का इज । परे शोर का सतसभ हैन्अपर एतिसल मे स्व कहा है सं पहीं है. पक हूं ही हर




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