गज - कपाल | Gaj - Kapal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श१्ते मैंने उसी दिन दफ्तर वालों की पूरी बातें लिख करता की दुकानदार की माफ़ेत चिट्टी सेजने को लिख दिया । व्ाठवें दिन ही मुझे झपने पिताजी का उत्तर-प्राप्त हो गया। बड़ी लम्बी चिट्टी थी शुरू से लेकर उस समय तक की पूरी बातें उससे लिखी हुई थीं 1 उसचिट्टी को पढ़ने से मुफे मालूस हो गया कि पिताजी को मेरे सिलिटरी में भर्ती होने से जितना दुःख पहुंचा शायद जीवन में कभी भी उतना दुःख उन्हें नहीं पहुंचा होगा । इलाहाबाद से लिखा हुआ पत्र सिल्नते ही वे मुझे देखने के लिये चहां पहुंचे थे किन्तु उनके वहां पहुंचने के पहिले ही मैं पूना चला आया था इस लिये निराश होकर उन्हें पुनः लखनऊ लौट जाता पड़ा था । हां लोटने के पहले उन्होंने अपने उन सम्बन्धी महाशय की बहुत बुरी दुमंति की थीौ। घर से दो पत्र वे पूना कैम्प में भी सेज चुके थे परन्तु उन दोनों पत्रों का पता मुझे ्याज तक सी न मिल सका । इस पत्र मे यत्र-तत्र लेक बार उन्होंने यही इच्छा अरकट की थी कि यदि किसी अ्रकार में इस मिलिटरी की सौकरी को छोड़ कर घर पहुंच सकू तो बहुत अच्छा हो किन्तु ऐसा होना छाब नितांत असम्भव ही था । पांच हजार रुपया खच करके भी वे उस समय छापने एकमात्र पुत्र को सैनिक बन्धनों से मुक्त नहीं करा सकते थे । वह समय ही तब फुछ ऐसा था । उसके बाद मेरे पिताजी ने बहुत-बहुत चेष्टा्यें मुके पने पास बुलाने के लिये कीं । परन्तु बढ़े-चड़े अफसरों की सिफारिश




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