शूद्र मुक्ति | Shudra Mukti

Shudra Mukti by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# शूद्र मुक्ति १ श्फ 1 नकल चक वैक ि चिपक निचे थ; भें नि. केक पे, हि, चिकन चर बेन. लिए... कक का, पका... चियायय िजिक लय, पक कि चकण .. गछ लीध पे व. नीजिलगिक ही सी पटल किक टैपकिफियिलियद वि , चिद चललिटय, जि चिपक. हिल भू, जल, अधि, चायु तंत्वोंकें होते हैं। जिस २ शरीरमें एक तत्वकी मुख्यता आर इतर का गी णत्व दोता है चट शरीर उसी सत्व-कायका कहलाता है। इसके चाद ऐसे ही स्थूलॉका आकार प्रगद होता है। इन का्योंकी अघगाहना-विकासकी भी चुद्धि होती रदती है इसके पीछे चनस्पति कायका सूक्ष्म और स्थूलरूप उत्पन्न होता है भीर फिर शने २ जलग्र, धरलचरादि पदा टोने हैं। सचुप्य देदका विकास सब फे पीछे होता है । इन सच शरीरों को विकासाबगाहना की सीमाएं थी दोती हैं । इन शरी रोके साश्रयस शो यात्म-विक्रास होता है। आत्म-विकास भोर पौह्लिक देह-चिंकास समचायी हैं, या यों समशिए कि उपरोक्त पीद्वलिक शरीर आात्म- दचिकास के सत्र हैं । इनकी पर्यायों में होकर पिरड-मय आत्मा अपना चिद्रास फरता हैं । इसछिये भात्म-विकासको अपेक्षा लेकर इन पर्यायोंकी श्रेणिया छशानियंनि छाट लीं हैं भर उनको चीरासों लाख योनियोके नामसे चतलाया है । ये पर्योयें इतनी ही हैं बा फर्मोचेश इस की समीक्षा इस लेखमे नहीं हो सकती । यहां इतना ही कह देना बस होगा कि दरएक कायकी श्रेणीमें आनेवाठी जितनी भी शारीरिक पयोयें हैं उनमें परसुपरमें भी जीवन-संग्राम होता है और पर-काय की देद्ीसे भी होता रदता है । दस संग्रामम ही आत्मा का शान-विकास होता दै और फर्स्म-चगणानों का सत्च गिरता सेला जाता है । एक कायमें जितना जीवन संश्राम भीर पान-चिक्रास हो सकता है उस सीमाकों पूरी किये बिना भात्सा उध्ध काय श्रेणीमें पीद्खिक देहको प्राप्त नहीं करता । इस प्रकार ज्यों २ आत्माये शान-विकास पाती जाती हैं ही २ उप दोनी ९ ऐसी अवस्थाकों पहुंचती हैं जय मजुप्य देह में टोने योग्य प्रणत्म-चिक्रासके सेन्रकों प्राप्त करे 1 आत्म विकास कहों घा चतन्य-शान विकास, एक दो बात है । जेन तत्वल्ोंने इस विकासकी पर्याय-ध्रुन घानसे प्रारम्भ किया है और केवल्यमाथ तथा केचल न्ानमें समाप्ति धतलाई है । यद पर्थाय घुत पान सूक्ष्म निगोदिया' लब्ध्य-पर्याप्तक जीघके दोबा ऐ, अर्थात्‌ फमले फ्स इतना जान ती दमेशा निरावरण प्रकाशमान रहना दी दै। जय यद देखना दै कि यह पर्याय श्रुत पान फ्या है। चेतन्यकों सिर्फ़ थपनी सत्ताका सूंस्पतम भाभास रूप घोध रहना ही पर्याय शुत है। ज्यों २ पर्याय जीव धारण करना है सों २ यह बोध पडणुणित हानि चद्धिके दिसायसें बढ़ता जाता हैं । तात्पर्य कह्नेफा यद है कि तारतम्युसे कान विकासकी पर्याय गसंख्यात हैं और क्रमचय हैं। मारे रुपसे हम' उनका उदादरण देते हैं :--( १) वे प्यायें जिनमें खससा भौर सद्देए सत्ताफा आसासमात्र- शान दो ( २) से पर्यायें जिनमें




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