इतिहास | Itihas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फिर मेरी और मुखातित्र होते हुए कहा--देखोगे कितने बारीक हैं ये चावल | बस बासमती ही समझो । ं जन सुशीछा ने चावल लाकर मेरी हथेली पर रखे तो मैंने देखा चावल सचमुच बड़े बारीक और लम्बे थे । मैने उन्हें देखते देखते पूछा-- मुझे तो ज्यादा पहचान नहीं मौसीजी लेकिन हैं तो सचमुच बहुत बारीक और लम्बे-+पकने पर बड़ी अच्छी खील फूटती होगी ? ठाकुर साहब--क्या कहूँ थाली जैसे खिल उठती है | एक एक दाना अलग होकर इतना खुशनुमा मालूम पड़ता है कि फिर न पूछो । और फिर इसकी मिठास और खुद्नबू का क्या कहना | कल यही खाना खाआ न ? म--जरार-जरूर । यदद तो मेरा ही घर दे ठाकुर साइब-उऐसी मिठास है कि सूखा ही खाओ तो भी स्वाद आता है और खुशबू तो ऐसी कि घर-भर गमक उठता है इतर की तरह | मे--मादम नही उन्होंने क्यो मना करवा दिया । सान लीजिए उन्हे चावल मिल भी गया है कहीं से तो भी एकाध बोरा और लेकर डाल लेने से कुछ तिगड़ थोड़े ही न जाता और उस पर से इतना नफीस चावल ठाकुर साहब--यही तो मैं भी कहता था | मे--पूछूंगा मैं | ठाकुर साहब--मैं तो भाई पहले अपने घर में दिया जलाता हूं फिर मस्जिद मे । तुम्हारे घर को अपना ही समझता हूँ इसलिंए जोर देता हूँ नहीं मुझे क्या जरूरत नहीं ? मेरा घर तो अंधा कुर्भों है कितनी ही मिट्टी क्यो न डालो पट नहीं सकता । ग्यारह आदमी खानेवाले है। दो रुपये का भाा प्रुदकिछ से तीन जूत चलता है | मे-सच १ इतना १ ठाकुर साइब ने अपने सबसे छोटे लड़के की ओर इशारा करके मुस- कराते हुए कद्दा--सच नहीं तो कया झूठ ? इन्हे देखो । जुम्मा जुम्मा आठ रोज के हैं आप और आपकी खुराक ? महज मेरी दुगनी मै--बड़े खराब हैं आप मौलाजी । झूठ-मूठ बेचारे को नजर लगाते हैं । श्‌ २५




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