योगतत्वांक | Yogtatwank

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Yogtatwank by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अड्ड 1 + शुभाझंसा और योग-साधना + ५ कफ़फफफकफफ कप फफफफफाफाफ फ्फफाक फफफकफक कफ मकापफामफ कफ का काका फफाफम कफकपफ पाक ाक कफ कफ ऊकफ कक अककीफकर्जअकअऊकअअऊअऊकऊफकऊ कऊफाऊँी जजीजनी-कअकअऊीजअऊसीजमी री पक कफ फ़फफफफफफफपपफफफफफपफफफफ फफप कम फकफफ पाक पाक फाफ फाफ कमाक फ्फफा्फ फफाफपफाफमप फा्फफर्फ जब साधक परमब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति लिये ध्यानयोगका साधन. आरम्भ करता है, तब उसको अपने सामने कभी कुहरेके सदुश रूप दीखता है, कभी धूआँ-सा दिखायी देता है, कभी सूर्यके समान प्रकाश सर्वत्र परिपूर्ण दीखता है, कभी निःशब्द वायुकी भाँति निराकार रूप अनुभवमें आता है, कभी अग्रिके सदुश तेज दीख पड़ता है, कभी जुगनूके सदृझा टिमटिमाहट-सी प्रतीत होती है, कभी बिजलीकी-सी चकाचौंध पैदा करनेवाली दीप्ति दृष्टिगोचर होती है, कभी स्फटिकमणिके सदूश उज्ज्वल रूप देखनेमें आता है और कभी चन्द्रमाकी भाँति शीतल प्रकाद़ा सर्वत्र फैठा हुआ दिखायी देता है।. ये सब तथा और भी अनेक दृश्य योग-साधनकी उन्नतिके द्योतक हैं । इनसे यह बात समझमें आती है कि साधकका ध्यान ठीक हो रहा है। पृथ्व्यप्तेजोजनिलखे समु्धिते पञ्ात्मके योगणुणे प्रवृत्ते। न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाशरिमयं झरीरम्‌ ॥ ध्यानयोगका साधन करते-करते जब पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-- इन पाँच महाभूतोंका उत्थान हो जाता है, अर्थात्‌ जब साधकका इन पाँचों महाभूतोंपर अधिकार हो. जाता है और इन पाँचों महाभूतोंसे सम्बन्ध रखनेवाली योगविषयक पाँचों सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं, उस समय योगायिमय झारीरको प्राप्त कर लेनेवाले उस योगीके शारीरमें न तो रोग होता है, न बुढ़ापा आता है और न उसकी मृत्यु ही होती है । अभिप्राय यह कि उसकी इच्छाके बिना उसके झारीरका नाश नहीं हो सकता । लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्व॑... वर्णाप्रसाद॑ स्वरसोष्ठवं' च। गन्ध: झुभो मूत्रपुरीषमल्प॑ योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति ॥ भूतॉपर विजय प्राप्त कर लेनेवाले ध्यानयोगीमें पूर्वोक्त झक्तियोंके सिवा और भी झाक्तियाँ आ जाती हैं । उदाहरणत: उसका झारीर हल्का हो जाता है, शरीरमें भारीपन या आलस्यका भाव नहीं रहता । वह सदा ही नीरोग रहता है । उसे कभी कोई रोग नहीं होता । भौतिक पदार्थोमें उसकी आसक्ति नष्ट हो जाती है। कोई भी भौतिक पदार्थ सामने आनेपर उसके मन और इन्द्रियोंका उसकी ओर आकर्षण नहीं होता । उसके शरीरका वर्ण उज्ज्वल हो जाता है । स्वर अत्यन्त मधुर और स्पष्ट हो जाता है । चारीरमेंसे बहुत अच्छी गन्ध निकलकर सब ओर फैल जाती है । मल और मूत्र बहुत ही स्वल्प मात्रामें होने लगते हैं । ये सब योगमार्गकी प्रारम्भिक सिद्धियाँ हैं--ऐसा योगी लोग कहते हैं। यथेव बिम्ब॑ मृदयोपलिप्त॑ तेजोमयं भ्राजते तत्सुधान्तम्‌ । तट्ठाऊ5त्पतत्त्व॑ प्रसमीक्ष्य देही एक: कृतार्थों भवते वीतशोकः ॥ जिस प्रकार कोई तेजोमय रत मिट्टीसे लिप्त रहनेके कारण छिपा रहता है, अपने वास्तविक रूपमें प्रकट नहीं होता, परंतु वही जब मिट्टी आदिको हटाकर धो-पोंछकर साफ कर लिया जाता है तब अपने यथार्थ रूपमें चमकने लगता है, उसी प्रकार इस जीवात्माका वास्तविक स्वरूप अत्यन्त स्वच्छ होनेपर भी अनन्त जन्मोंमें किये हुए कमेंकि संस्कारोंसे मल्न हो जानेके कारण प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता, परंतु जब मनुष्य ध्यानयोगके साधनद्वारा समस्त मलोंको धोकर आत्माके यथार्थ स्वरूपको भलीभाँति प्रत्यक्ष कर लेता है, तब वह असज्ञ हो जाता है। अर्थात्‌ उसका जो जड-पदाथेकि साथ संयोग हो रहा था, उसका नाझा होकर वह कैवल्य-अवस्थाको प्राप्त हो जाता है तथा उसके सब प्रकारके दुःखोंका अन्त होकर वह सर्वथा कृतकृत्य हो जाता है। उसका मनुष्य-जन्म सार्थक हो जाता है। . यदाऊ5त्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत््व॑ दीपोपमेनेह युक्त: प्पश्येत्‌। अं ध्रुव सर्वतत्ते्विशुद्ध ज्ञात्वा देव॑ मुच्यते सर्वपादे: ॥ फिर जब वह योगी इसी स्थितिमें दीपकके सदुश निर्मछ प्रकाशामय पूर्वेक्ति आत्मतत््वके द्वारा ब्रह्मतत्वको भलीभाँति देख ेता है--अर्थात्‌ उन परब्रह्म परमात्माको प्रत्यक्ष कर लेता है, तब उन जन्मादि समस्त विकारोंसे रहित, अचल और निश्चित तथा समस्त तत्वोंसे असज्ञ--सर्वथा विशुद्ध परमदेव परमात्माको तत्त्वसे जानकर सब प्रकारके बन्धनोंसे सदाके लिये छूट जाता है।




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