जी० पी० श्रीवास्तव की कृतियों में हास्य विनोद | G.p.srivastava Ki Kritiyo Me Hasya Vinod
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26.14 MB
कुल पष्ठ :
265
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्याम मुरारी जैसवाल - Shyam Muraree Jaisavaal
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विनय हास्य के नाम मात्र से जो मुस्कराने को सदैव उत्सुक रहते हैं उनका मैं सत्कार करता हुँ । जो हास्य रस की चर्चा से मुँह बिचकाकर हंसते हैं उन्हें स्मरण रहे कि हास्य की अवज्ञा में भी वे उसका आश्रय ग्रहण करते हैं । सीता जी की तिरछे करि नैव दे सेन तिन्हैं वाली भेदभरी आमोदपूर्ण मुस्कान भी हँसी थी और रंग-प्रासाद में महाभारत-काण्ड की बीज रूप दुर्योधन की. नादानी से उद्भूत द्रौपदी की उपेक्षापूर्ण अघर-भंगिमा भी । हास्य का एकक्षत्र आधिपत्य है उसके निरादर में भी लोग हँसते ही हैं हास्य-रस विषयक जितनी व्याख्या पाश्चात्य देशों में हुई अपने देश में उसकी चतुर्थाश भी नहीं । वैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी में हास्य के विश्लेषण का पूर्ण अभाव रहा है। फिर जी० पी० एक पाश्चात्य लेखक से ही प्रेरणा लेकर बढ़े । इस कारण उनकी कृतियों का अध्ययन बिना हास्य के पाश्चात्य सिद्धान्तों के धरातल पर की गई व्याख्या की पृष्ठभूमि के सदेव अपूर्ण रहता । अस्तु प्रथम दो अध्यायों में भारत के विद्वानों के साथ ही विदेशी मत-मतान्तरों का अधिक प्रश्नय लिया गया है । व्यक्तिगत रूप से एवं पत्र व्यवहार द्वारा विचार विनिमय में जी० पी० ने अपना असूल्य समय देकर अपने सहज सौहादें की छाप हृदय-पटल पर सदा के लिए अंकित कर दी है । प्रस्तुत अध गन लखनऊ विश्वविद्यालय की सन १९५६ ई० की एम ० ए० परीक्षा के । 7 स्वीकृत हो चुका है । इच्छा थी कि इधर के सात वर्षों के जी० पी० के साहित्य पर भी कुछ कहा जाये । किन्तु सिबन्ध को यथाधत् अनुसन्धानात्मक _ व॑ आलोचनात्मक सामग्री को प्रामाणिक थीसिस के रूप में सुरक्षित रखने के रण न्यूनतम संशोधन ही सम्भव हो सके । तथापि परि- शिष्ट में कुछ नवीन संकेतों की अनुमति प्राप्त हुई है । निस्सन्देह शोध प्रबन्धों में भावना एवं आत्मीयता का बलिदान करना होता है । तटस्थ भाव से की गई आलोचनाओं में व्यक्तिगत अपनत्व के स्थान
User Reviews
No Reviews | Add Yours...