व्रत पर्वोत्सव अंक | Vrat Parvotsava Ank
श्रेणी : हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
35.66 MB
कुल पष्ठ :
481
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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वैदिक ब्रतानुशंसा
अये ब्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तनमे राध्यताम्। इद्महमनृतात्सत्यमुपैमि ॥
ब्रतोंकी रक्षा करनेवाले हे अग्रिदेव! मैं ब्रताचरण. करूँगा, आप मुझे ब्रतोंके आचरणकी शक्ति
प्रदान कीजिये। मेरा यह ब्रताचरण निर्विश्न सम्पन्न हो जाय। मैं असत्यसे दूर रहकर सत्यका ही
आचरण करूँ। ऐसा आशीर्वाद मुझे प्रदान कीजिये (यजु० १1५) ।
ब्रतेन दीक्षामाप्तोति दीक्षयाउउप्तोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्तोति . श्रद्धया. सत्यमाप्यते ॥
व्रत धारण करनेसे मनुष्य दीक्षित होता है। दीक्षासे उसे दाक्षिप्य (दक्षता, निपुणता) प्राप्त
होता है। दक्षताकी प्राप्तिसे श्रद्धाका भाव जाग्रतू होता है और श्रद्धासे ही सत्यस्वरूप ब्रह्मकी प्राप्ति
होती है (यजु० १९। ३०) ।
ब्रतेन त्वं ब्रतपते समक्तो विश्वाह्मा सुमना दीदिहीह।
त॑ त्वा वय॑ जातवेद: समिद्ध प्रजावन्त उप सदेम सर्वे ॥
व्रतोंकि स्वामी हे अग्रिदेव! आप ब्रतानुष्ठानके द्वारा सम्यकू रूपसे प्रसन्न होते हैं। सर्वदा
प्रसन्न मनवाले होकर आप हमारे घरमें प्रकाशित होनेकी कृपा करें। इस प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न
तथा सम्यक् रूपसे प्रकाशमान हे जातवेद! पुत्र-पौन्नादिसे युक्त हम सभी आपकी उपासनामें लगे
रहें (अथर्व० ७1७४ ४) |
त्वमग्ने ब्रतपा असि देव आ मर्त्येष्वा ।
त्वं यज्ञेष्वीड्य: ॥
हे अग्रिदेव ! आप ब्रतका पालन-रक्षण करनेवाले हैं। हे दीसिमानू देव! आप सभी मनुष्योंमें
विद्यमान रहते हैं। आप सभी यय्ञों (कर्मों) -में विराजमान रहते हैं। आप प्रशंसनीय हैं, स्तुत्य है
कऋगवेद ८ । ११1 १, | कद
का दी निन्द्यात्। तद् ब्रतम्।' अन्न न परिचक्षीत। तद् ब्रतम्।' ' अन्न बहु कुर्वीत। तद्,
है ब्रतम्ू ।
ब्रतमू।' 'न कद्चन वसतौ प्रत्याचक्षीत। तद् ब्रतम् हा ली
' अन्नकी वह व्रत है।' 'अन्नकी अतिथिकों प्रतिकृत
अन्नकी निन्दा न करे, अपने घरपर ठहरनेके लिये आये हुए किसी भी अतिथिकों प्रतिकृत
बढ़ाये, वह एक ब्रत है।' अनु के
हम ' /तैत्तिरीयोपनिषद् भूगुवल्ली अनु० ७१०४!
उदर गा दे; चह यक गत है एतलियदी सत्येन पन्था विततों देवयानः |
जयति नानृत॑ं स
समय, तत् सत्यस्य परम॑ निधानम् ॥।
येनाक्रमन्त्यूघषयो ह्वाप्कामा यत्र शत
सत्य ही विजयी होता है, झूठ नहीं; क्योंकि वह देवयान नामक मार्ग सत्यसे परिपूर्ण का । हा
.. सु पी ; क्योंकि कल
पूर्णकाम ऋषिलोग (वहाँ) गमन करते हैं, जहाँ वह सत्यस्वरूप पुरब्रह्म परमात्माका उत्कृ
मुण्डक० ३1१५६ 1
( के फ लिन न्याय .ननााााािएल्स्एएए
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