रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक जीवनी | Ravindranaath Thaakur Ek Jiivanii

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कृष्ण क्रपलानी - Krisn Krplani

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रणजीत साहा - Ranjit Saha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वंश परंपरा पर और जब वे उससे बरी हुए तो उन्हें अनुभव हुआ मैं ठीक पहले जैसा आदमी नहीं रहा। संपत्ति के प्रति मेरा लगाव उदासीन हो गया। वह फटी-पुरानी बांस की चटाई जिस पर मैं बैठा था-मुझे अपने लिए उपयुक्त जान पड़ी । कालीन और कीमती दिखावे मुझे घृणास्पद प्रतीत होने लगे और मेरा मानस उस आनंद से परिपूर्ण हो उठा जिसका अनुभव मैंने पहले कभी नहीं किया था। काफी वर्षों के बाद लिखी अपनी जीवनी में उन्होंने अपनी आध्यात्मिक भूख और सत्य के संधान तथा अपनी आस्था के उत्थान और उत्कर्ष के बारे में बड़े विस्तार से लिखा है। यह एक बड़ा ही महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसे एवेलिन अंडरहिल ने आत्मा के उन कतिपय प्रामाणिक इतिहासों में से एक बताया है जो संख्या में बहुत कम हैं । घर वापस लौटने पर देवेन्द्रनाथ ने अपनी व्यक्तिगत स्वामित्व की बहुत-सी चीजें अपने मित्रों और दूसरे लोगों के बीच बांट दीं । लेकिन भौतिक उत्पादनों के अधिकार-बोध से परे होकर भी उन्होंने न तो कोई आनंद पाया न किसी ज्ञान की प्राप्ति ही की । उन्होंने अपने धर्म के पवित्र ग्रंथों के साथ साथ पाश्चात्य दर्शन की किताबें भी पढ़ीं । लेकिन उन्हें आश्वस्ति नहीं मिली । वे लिखते हैं मेरे हृदय में दारुण पीड़ा थी । मेरे चारों ओर गहन अंधेरा था । संसार के प्रति मेरी ललक मिट गई थी लेकिन परमात्मा का बोध निकटतर नहीं हुआ था । चित्त इहलौकिक (पार्थिव) और स्वर्गिक पारलौकिक उल्लास के दंद का शिकार था । मेरा जीवन उदासी से भरा था और सारी दुनिया कब्रगाह की तरह जान पड़ती थी। ऐसी मानसिक स्थिति में अचानक एक दिन मैंने देखा कि मेरे सामने ही किसी संस्कृत ग्रंथ का पन्‍ना फड़फड़ा रहा है। मैंने यूं ही जिज्ञासावश उसे ऊपर उठा लिया लेकिन उसमें जो कुछ भी लिखा हुआ था-उसका कुछ भी मेरे पतले नहीं पड़ा। इसे उन्होंने एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान के पास भेजा । उन्होंने इस सामग्री के पहले पाठ-अंश को इशोपनिषद प्रथम श्लोक के रूप में पहचान लिया और उसके अर्थ की व्याख्या की जो कुछ भी इस घूमती दुनिया में चलायमान है वह परमात्मा द्वारा आवेष्टित है। अतः आत्मत्याग में ही अपने आनंद को प्राप्त करो तथा पराए धन के प्रति कोई आसक्ति न रखो । यह घटना उस युवा उपासक के लिए जो अंधेरे में भटक रहा था एक रहस्योद्घाटन जैसी थी। परमात्मा में मेरी आस्था गहरी हो चली सांसारिक खुशियों के बदले मैं दैवीय आनंद का आस्वाद लेने लगा ।... जब मैंने उपनिषदों का गहराई से अध्ययन किया मेरी मनीषा दिन-प्रतिदिन सत्य के प्रतिदान से आलोकित होती चली गई और सत्यधर्म के प्रचार-प्रसार के प्रति मेरे मन में तीव्र लालसा लगी । और इस तरह 1839 के पहले दिन जिस दिन बंगाल के हिंदू मां दुर्गा का वार्षिक उत्सव मनाते हैं देवेन्द्रनाथ ने अपने मित्रों और सहयोगियों को बुलाया और उनके साथ एक विशुद्ध ईश्वरवादी (आस्तिकवादी) संघ की स्थापना की जो वैश्विक और अमूर्त देवत्व (ईश्वरत्व) की उपासना के प्रति समर्पित




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