मुकितिबोध का साहित्य चिंतन | Muktibodh Ka Sahitya Chintan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जाय दूसरा-मार्क्सवादी अवधारणा को साहित्य जगत से बाहर खदेडना कहने की जरूरत नहीं कि इन दोनो ही चीजों की विशेष जरूरत पर मुक्तिबोध बल देते रहे। अत मुक्तिबोध को मार्क्सवादी कहना न तो उनके साथ अन्याय है और न ही कलाकार के प्रति की गई ज्यादती। हॉ यह सही है के वे मार्क्सवाद की रूढिगत स्थिति मे कुछ परिवर्द्न करना चाहते थे। इसका कारण साफ है- वे कला को सारी वस्तुगतता के बावजूद एक आत्मिक प्रयास ही मानते है हकीकत भी यही है।. मार्क्सवाद उनके लिए निश्चित ही वैचारिक प्रतिबद्धता का पर्याय है लेकिन अपनी सास्कृतिक परम्परा खासतौर पर भवक्तिकालीन सतो की वैयक्तिक दैन्य निरूपण की आत्मरक भावधारा का उन पर अतिशय प्रभाव है। उन्होने साफ तौर पर माना है कि. आत्मपरक भावधारा भी हमारी काव्यात्मक सस्कृति का एक महत्वपूर्ण अब है और इस धारा के माध्यम से भी कवियों ने वास्तविकता को ही दर्शाया है। अतएव कोई कारण नहीं हो सकता कि इस धारा के माध्यम से सच्चाई का न बयान किया जा सके। इसीलिए वे नई कविता के सन्दर्भ म प्राय आत्मपरकता और वस्तु परकता के समन्वय पर बार-बार जोर देते रहे। मुक्तिबोध के विचार इतने स्पष्ट हैं कि किसी से छिप नहीं सकते। वैचारिक तौर पर वे वामपथी है यह बात सबको मालूम है। फिर भी भ्रम किसी भाष्यकार या शोधकर्ता द्वारा उनसे वैचारिक तौर पर इत्तेफाक न रखना समझा जा सकता है लेकिन उस विचार से स्वय का सम्बन्ध न होने के कारण कवि के ही विचारों का इतर घोषित करना उसकेसाथ अन्याय है। कहने की जरूरत नहीं कि मुक्तिबोध के रचना-प्रक्रिया विषयक जितने भी लेख है वह इसी अन्याय के प्रतिकार का ही एक रूप है। उनके समस्त वैचारिक चितन को देखकर मैं भी इस निष्कर्ष पर पढुँचा हूँ कि मुक्तिबोध का मार्क्सवाद में गहन विश्वास था और इस विश्वास के चलते ही वे आज एक बडे कवि और चितक हैं इस विश्वास के बावजूद नदी।




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