मराठों का नवीन इतिहास | Maratho Ka Navin Etihash

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Maratho Ka Navin Etihash by गोविन्द सखाराम सरदेसाई - Govind Sakharam Sardesai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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्‌्ं मराठों का नवीन इतिहास राजवानी और देश से भाग जाता था । इस दा मे प्रद्यासन की सचालन-दाक्ति का किसी मन्त्री या मन्त्रिमणष्डल मे निहित हो जाना स्वाभाविक था । कोई मन्त्री चाहे कितना ही अधिनायक क्यो न हो राज्य के बैब स्वामी की स्थान-पूर्ति पुण रूप से नहीं कर सकता । एक बात तो यह हे कि मन्त्री एक वेतनभोगी सेवक होता हे वह लगभग प्रतिनिधि के रूप से अपने स्वामी की शक्ति का व्यवहार करता हे । वह उस दपण के समान है जो सूय-किरणो को प्रतिबिम्वित करता है । यह मन्त्री किसी भी समय अपने स्वामी द्वारा पदच्युत किया जा सकता हे जबकि वैध शासक आजीवन राजसत्ता हथियाये रहता है । दूसरी बात यह है कि मन्त्री स्देव प्रतिद्वन्द्रियो से घिरा रहता है जो उसके अधिकारों को चुनौती देते है और प्रकट या गुप्त रूप मे उसके विरुद्ध पड़यन्त्र करते रहते है । अत उसको अपना अपिकाण समय तथा त्यान सर्व इस प्रकार के प्रतिद्न्द्वियों पर देना पडता है जिससे उनके पड़यत्र कभी इस प्रकार प्रबल न हो जाये कि वह उनका नियन्त्रण न कर सके । वह सकट काल से अपने नाम की दुहाई देकर समस्त राष्ट्र का आह्वान नहीं कर सकता | जब सम्राट अबोब शिशु हो तथा मन्त्री उसका वैय अभिभावक एव सरक्षक हो तब वह सम्राट के प्रतिनिधि के रूप मे काम कर सकता है । सावजनिक मान्यता प्राप्त राजा की तुलना में महानतम मन्त्री की भी स्थिति निबल रहती हे । इसका स्पष्ट उदाहरण बाजीराव प्रथम की अनिदि्चित स्थिति हे जो उसके पद-ग्रहण के प्रथम ८ वर्षों की अवधि में रही-- जब तक कि शाह ने पेदवा को अपने प्रशासन का निषिवाद अध्यक्ष न बना दिया । बाजीराव द्वितीय के पेणवा होने के बाद वृद्धावस्था में नाना फडनिस की जो दशा हुई जिस अदक्त अवस्था तथा अपमान को वह प्राप्त हुआ वह इस सिंबलता का अधिक प्रबल तथा दुखद प्रमाण है जबकि इस मराठा चाणक्य ने गत चौथाई शताब्दी मे जगद्विस्यात सफलता प्राप्त की थी तथा राष्ट्र की अविस्मरणीय सेवा की थी । यह कथन सत्य हे कि वादविवाद मण्डली युद्ध का सचालन नहीं कर सकती । अत बार भाइयों की परिषद्‌ को भंग करने तथा अपने आपको एकमात्र अनियत्त्रिति अधिपति बना लेने का काय नाना फडनिस ने स्वाथ भावना से प्रेरित होकर नहीं किया था वरन्‌ यह काय उसने देश के जीवन-मरण के सघर्ष मे उसकी आवश्यकता से विवश होकर किया था क्योकि शत्रुओ ने सम्पूर्ण महाराष्ट्र को घेर लिया था और वे उसकी आन्तरिक दक्ति को क्षीण कर रहे थे । अस्थिर स्वभाव वाला १७ वष का अपरिपक्व किशोर नारायणराव




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