परलोक वाद | Parlok Vad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
460.3 MB
कुल पष्ठ :
152
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दूसरा परिच्छेद
परलोक-विद्या के सिद्धान्त
परलोक-विद्या-विशारदों ने इस तत्व की खेजज की है, कि मनुष्य के दे शरीर
होते हैं । एक स्थूल शरीर श्रौर दूसरा सूदम शरीर । ये दोनों शरीर
एक दूसरे से सम्बद्ध होते हैं । जब मनुष्य की मृत्यु दो जाती दे तो इन
दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध टूट जाता दे श्रौर स्यूल शरीर मृत शरीर है।
जाता है, किन्तु सूदम शरीर का श्रस्तिस्र बना रहता है । उसके रहने
के स्थान को परलोक कहते हैं। सूदम शरीर की संज्ञा इसलिए दी गई
हे कि यदद दृष्टिगोचर नहीं होता। इस सूदम शरीर में भी मनुष्य के
गुण-देष उसके साथ रहते हैं । उसका जीवित श्रवस्था का ज्ञान, स्मरणु-
शक्ति, व्यक्तित्व तथा श्रन्य गुण इस सूदम शरीर में रहते हैं । इनका नाश
स्थूल शरीर के नाश के साथ नहीं होता ।. सूचम शरीर में भी जीव की
विचार-धारा बनी रहती दै । साथ ही सूदम शरीर साकार श्रौर सावयव
हे। इस सम्बन्ध में जे० झार्थर फिनले ने श्रपनी पुस्तक (00 (006 शतेटू९
0 ि(तापं८ मैं लिखा है :--
“इस संसार में हमारा शरीर दे शरीरों का बना हुभ्रा है। एक
स्थूल शरीर, जिसे हम देख सकते, छू सकते हैं त्रौर दूसरा सूदम शरीर
है, जिसे हम इन्द्ियां से श्रनुभव नददीं कर सकते । ये दोनों शरीर एक
दूसरे से घुले-मिले रहते हैं, किन्तु सूदम शरीर चिरस्थायी है । सूद्म
शरीर के मस्तिष्क में स्मृति, व्यक्तित्व तथा हमारे श्राचरण के श्रन्य गुण
विद्यमान रहते हैं ।. ये गुण सूदम शरीर के ही हैं । विचारालय (१1100)
कमी जरर नहीं दोता ।. केवल स्थूल शरीर के मस्तिष्क में ब्रद्धावस्था के
कारण दोष श्रा जाते हैं । एक वार जिस ज्ञान को हम प्रात कर लेते हें
User Reviews
No Reviews | Add Yours...