जोनराज की राजतरंगिणी | Jonaraja Ki Rajatarangini

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Jonaraja Ki Rajatarangini by पं. रघुनाथ शास्त्री - Pt. Raghunath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उद्गम परम्परा : इतिड्रास की प्राचीनता एवं उसकी परम्परा पर कर्हण की राजतऱिणी प्रथम भाग के मुख मे विचार किया है। थारदा देश काइमीर एवं काशी से विद्वानों की एक बहुत बडी परम्परा जुटी है, बति प्राचीन काल से । कारमीर भूमि ने केवल केप्तर-बुखुम की सुगन्धि ही कन्याबुमारी तक प्रषारित नहीं की, बत्कि बुद्धिविलाप्त का बैंभव भी देश के कोने कोने में पहुँचाया है। महनीय संस्कृत महाकवियों के विषय मे विचार करने प आपाततः यही माठूम पडता है हि संस्कृत वाइमप काश्मीरं-कविमय है । उन्दे अनग कर देखने पर बहुत हल्कापन आजाता है । काइ्मीर में कवि राज्याश्रप प्राप्त कर काब्यादि के क्षेत्र मे प्रभावशाली बनते थे । अधिक कब्र ऐसे ही हुए हैं । बैसे यह, भारतीय पर्पिटी रही है। ऐसी स्थिति मे कवियों का राजाओं के प्रति लपती शंतशता प्रकट करना, अधिकाधिक कृतज्ञ रहना, स्वाभाविक ही है | चाहे वह किषटी भी रूप में बयो न हो । कल्हण ने एक इकोक में लिखा है--“जिन राजाओ की छमछाया में पृथ्दी निर्भय रही, वे राजा भी जिस कवि- कमें के बिना स्थृति पय पर नहीं आते उस कविनक्म को नमन है ( रा० तर: १1४६)” पह सुक्ति अविकछ रूप से सत्य है। कारमीर दा इतिवृत्त प्रथित्त करने का प्रयास सर्वप्रथम सुचत, धेमेर्द्र, नील मुनि, हेठारान, छमिज्ञापर थादि ने किया था । यह प्रपाव बादिस होने के बारण दोपपूर्ण होने पर भी स्तुत्य है। इनमे नीलम पुराण के अतिरिक्त प्राय: सब कृत्तिया श्रश्नाप्य है । उक्त कवियों ने जिए्ट इतिवृत छिखने को परम्परा चलायी, उसे सुन्दर दंग से पहबित करने का गौरव महाकथि कल्हण को प्राप्त है। इस प्रवार दिवंगत राजाओ वों आकस्प रसने थी एक नवीन प्रक्रिया प्रारमम हुई। प्रव॑ के ऐतिहा विच्छिस थे, उनमे बोई अच्छा क्रम नहीं था । प्रामाणिकता का लभाव था । सम्भवत, सब लोकक्याओ पर ही आधारित थे । बल्हेण ने दतिदुत्त के समस्त सोती, दानपत्र, शिललिख, छोककथा, परम्परा आादि से तथ्य संगृहीत बेर, पुन' नवीन ढंग से राजात्तरगिणी छिखना प्रारम्भ किया । राजा जयसिंहू तर बत्दण रानतरपिगी हा जगत धारा प्रवाहित रहो । तत्पदचात्‌ शुष्क होने की स्थिति आ गयी । दिस्तु परवर्ती राजाओ के पुण्य से जनुठाबदीन वे राज्यकाल में महाकवि जोनराज हुए ये । उन्होने जैनुलाबदीन के मत्री शियंभट्ट की आजा मस्त कर, बहहण के पश्चातु से तरद्िणी को पुनः प्रवाहित पिया । जोनराज ने कहण के उत्तराधिदार का गुन्दर ढंग से ,वाह विया है। उन पर प्रत्यक्ष एवं परोश रूप से बह्हण वा पूर्ण प्रभाव पढ़ा है। जोनराज ने बर्हण को वाणी को रखगयी कहा है। अतः सिंद है, रवय भी अपनी वाणी रसमपी बनाने में बोई प्रयारा छोड़ा नहीं है । (थे




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