स्कंदगुप्त | Skandgupt
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8.07 MB
कुल पष्ठ :
250
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथम अंक
_ भातु०उनूकी बड़ो सुन्दर श्रीवा में लड्डू अत्यंत सुशोभित
होता था, 'और सबसे बड़ी बात तो थी बालि के लिये--उनकी तारा
का संनरित्व । सुना है सम्राट ! खी की मंत्रणा बड़ी 'अचुकूल_ और,
उपयोगी होती है, इसीलिये उन्हें राज्य की भंगाटो से शीघ्र छुट्टी
सिल गई । परम भट्टारक की दुद्दाई ! एक स्त्री को संत्री ाप भी
वना लें; बढ़े-चड़े दाढ़ी मूंछवाल मंत्रियों के वद्ले उसकी एकॉत
संत्रणा कल्याणकारिणी होगी | ी
कुसार०--( हेंसते हुए ) लेकिन प्रथ्वीसेन तो मानते ही
सही ।
धातु०-- तब मेरी सम्मति से वे ही कुछ दिनों के लिये स्त्री
हो जायें ; क्यों कुसारामात्यजी ?
प्रथ्वीसेन--पर पुम तो खरी नहीं हो जो से तुम्हारी सम्मति
मान लू ? ्
कुमार--( दँसता हुआ ) हों; तो आय्य समुद्रगुप्ठ को विवश
होकर उन विद्रोही विदेशियों का दमन करना पड़ा, क्योंकि मौय्यं
साम्राज्य के समय से दही सिघु के उस पार का देश भी भारत-
साम्राज्य के अन्तर्गत था। जगद्विजेता सिकन्दर के सेनापति
सिल्यूकस से उस प्रान्त को मौय्य सम्राट चंद्रगुप्त ने लिया था ।
धातु० --फिर तो लड़कर ले लेने की एक परम्परा-सी लग
जाती है । उनसे उन्होंने, उन्होंने उनसे ; ऐसे हो लेते चले आये
हैं। उसी प्रकार चाय्य ! . .......
छुमार०--उँंद ! तुम समभकते नहीं । मु ने इसकी व्यवस्था
दी है। कि
, घातु०--नहीं घम्सावतार ! समक में तो इतनी बात या गई
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