पाश्चात्थ राजनीतिक चिन्तन का इतिहास | Pashchatya Rajnitik Chintan Ka Itihas

Pashchatya Rajnitik Chintan Ka Itihas by डॉ. जी. डी. तिवारी - Dr. G. D. Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छे और अरस्तू दोनों ने राज्य को एक नैतिक एवं प्राकृतिक संस्था के रूप में स्वीकार किया था । उनकी सान्यता थी कि व्यक्ति का विकास राज्य में रहकर ही हो सकता है। अत उन्होंने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि राज्य और व्यक्ति के बीच कभी संघष॑ की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। उनकी दृष्टि में राज्य व्यक्ति की आकांक्षाओं और विवेक का साकार रूप था । इसलिए उनका कहना था कि व्यक्ति को राज्य के आदेशों का पालन केवल इस कारण नहीं करना चाहिए क्योंकि उससे उन्हें भौतिक लाभ प्राप्त होते हैं अपितु इस कारण करना चाहिए क्योकि उसके बिना उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो सकता । यही कारण है कि सुकरात ने कारागार से भागने से इनकार कर दिया तथा सह्ष राज्य द्वारा दिये गये मृत्यु-दण्ड को स्वीकार किया । प्लेटो से पुर्वे ग्रीक राजनीतिक चिन्तन का स्वरूप ग्रीक राजनीतिक दर्शन के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हमें ग्लेटो और अरस्तु की विचारधाराओं से होता है । इन दो दार्शनिकों ने उसे एक क्रमबद्ध दर्शन का रूप प्रदान करके पादचात्य राजनीतिक चिन्तन का शिलान्यास किया । परन्तु यह भी ज्ञातव्य है कि इनकी विचारधाराएं इनके पुर्वेवर्ती राजनीतिक चिस्तन एवं अतीत की तथा तत्कालीन राजनीतिक संस्थाओं एवं उनके संचालन सम्बन्धी ध्यवहारों से प्रभावित और उन्हीं सन्दर्भ में व्यक्त की गयी हैं । न केवल प्लेटो तथा श्ररस्तु का ही राज्य-दशन अपितु उससे पूर्व की ग्रीक विचारधाराएँं भी ग्रीक नगर-राज्यों की पृष्ठभूमि में ही प्रतिपादित हुई हैं । इस दृष्टि से प्लेटो से पूर्व ग्रीक राजनीतिक चिन्तन के स्वरूप की निम्नांकित विशेषताएं थीं--- (1) व्यक्ति राज्य का अभिन्न अंग--ग्रीक नगर-राज्य आत्म-निर्भर छोटे- छोटे जन-समूह थे । अत उनके अन्तगंत व्यक्ति के जीवन तथा सगर-राज्य के जीवन में भेद नहीं माना जाता था । राज्य या. जन-समूह से बाहर व्यक्ति आत्मननिर्मर जीवन व्यतीत नहीं कर सकता था । अतएव ग्रीक विचारक व्यक्ति को राज्य का अभिन्न अंग मानते थे और राज्य के जीवन में उसके सक्रिय योगदान की कामना करते थे । (2) धर्मनिरपेक्ष राजनीति--ग्रीक लोग अपने परम्परागत ढंग से माने जाते रहे देवी-देवताओं पर आस्था रखते थे । परन्तु उन्हें रहस्यमय शक्तियों से पुक्त नहीं मानते थे । बरन्‌ उन्हें मनुष्य की अपेक्षा अधिक विवेकशील माना जाता था । अत ग्रीक लोग यह विश्वास करते थे कि उनके देवी-देवता सानवों की तुलना में अधिक विवेकशील हैं जिसके कारण उनकी भाराधना करने से सानवों को उच्चतर विवेक की प्राप्ति होगी और देवी-देवता उनके ऊपर अपनी कृपा-हृष्टि बनाये रखेंगे। धार्मिक विश्वासिता व्यक्ति का मिजी मामला मानी जाती थी । सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में धार्मिक कट्ररता या. विद्वासिता को प्रभावी नहीं माना जाता था । धर्म के आधार पर किसी विशिष्ट बर्ग का अस्तित्व नहीं था भौर न सामाजिक जीवन में ऐसे किसी बर्ग की विदिष्ट स्थिति होने की धारणा थी । परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक विश्वास की स्वतन्त्रता प्राप्त थी । (3) प्रकृति तथा सानव विवेक के मध्य सामंजस्य--ग्रीक लोग प्रकृति को मानव विवेक द्वारा बोधगम्य मानते थे ने कि एक रदुस्पमय शक्ति के रूप में । उनके




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