सूरसागर खंड 2 | Sursagar Khand-2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दशम स्कंघ पृ राग कान्हरी ॥ ४२४1! स्याम-कमल-पद-तख की सोभा । जे नखचद्र इंद्र सिर परसे, सिव विरचि मन लोभा ॥। जे नखचंद्र सनक मुनि ध्यावत, नह्टि पावत भरमाही 1 ते नखचद्र प्रगट न्नजजुवती, निरखि निरखि हरपाही ॥। जे नखचद्र फनिदट्दय तै, एकौ निमिप न टारत । जे नखचद्र महा मनि नारद, पलक न कहें विसारत ॥। जे नख-चंद्र-भजन खल नासत, रमा हृदय जे एरसति । सूर' स्याम-नख-चद्र-विमल-छवि, गोपीजन मिलि दरसति ॥ १८०६ ॥' राग आसावरी ॥ २४२४३ स्यामहृदय जलसुत की माला, शभ्रतिहि अनूपम छाजे (री) । मनहूँ बलाकपाँति नवघन पर, यह उपमा कछू स्राजे (री) । पीत, हरित, सित, श्ररन मालवन, राजति हृदय विसाल (री ) । मानहें इंग्रधनुष नभमंडल, प्रगट भयौ तिहि काल (री) । भूगु-पद-चिद्भ उरस्थल प्रगटे, कौस्तुभ मनि ढिंग दरसत (री) 1 (री) 1 है य सु ही । । बैठे मातौ पट विध इक संग, श्रद्ध निसा मिलि हरपत (री) ॥। भजा बिसाल स्याम सुंदर की, चदनखौरि चढ़ाएं (री के । १८०१७ 1ह। राग मलार ॥ २४२६ ॥। निरखि सखि सुंदरता की सीवा । अ्रधर अनप मुरलिका राजति, लटकि रहति अ्रध ग्रीवा ॥ मंद मंद सुर परत मोहन, राग मलार घजावत ॥ कवहुँक रीभि मुरलि पर गिरिघर, स्रापुह्ि रस भरि गावत ॥। हँसत लसति दसनावलि-पंगति, ब्रज-वनिता-मन-मोहत । मरकतमनि-पुट-विच मुकुताहल, वंदनभरे मन सोहत ॥ मुख विकसत सोभा इक आावति, मत्तु. राजीवप्रकास । सूर' श्ररून-प्रागमन देखि कै, प्रफूुलित भए हुलास ॥ १८०८त' राग टोड़ी ॥ २४२७ ॥। गोपी जन हरिवदन निहारति । कुचित श्रलक विश्ुरि रहे श्रूव पर, ता पर तन मन चार्रति ॥ वदनसुधा. सरसीरुहलोनन भृवुटी दोउ. रखवारी । मनौ मधप मधघपानहिं ग्रावत, देखि डरत जिय भारी ॥। इक इक झ्रलक लटकि लोचन पर, यह उपमा इक झावति । मनहूँ पन्नगिनि उत्तरि गगन तै, दल पर फन परसावति ॥ मुरली श्रघर धरे, कल पुरत, मंद मंद सुर गावत । सूर' स्याम नागरि नारिनि के, चंचल चितहिं चुरायत ॥ १८०९६॥ 'राग विलावल ॥ २४२८ ॥। देखि सखी. यह. सुंदरताई ! चपल-नैन-विच चारु नासिवय, इक्टक दृष्टि रही तहें लाई ॥।




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