बिहारी की सतसई | Bihari Ki Satsai

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Bihari Ki Satsai by पद्मसिंह शर्मा - Padamsingh Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सकता है कह कपल के न की _ अर्थात्‌ प्रक्रमप्राप्त ऐसे विषय-विशेषका वणुन झपरि ये है. वह होनाही चाहिए, वह काव्यका एक श्रड है, प्रक- रणुमें पड़ी बात कैसे छोड़ी जा सकती है? जो बात जैसी दे कवि उसका बेसा वर्णन करनेके लिये विवश है। श्छज्ारकी सामग्री तत्सस्बन्धी नाना प्रकारके दृश्य जब जगत्‌म प्रचुर परिमायणुम खबंत्र प्रस्तुत हैं, तब कवि उनकी श्रोरसे झांखें बन्द करले ? तड़िषयक वर्णन क्यों न कर ? फिर कवि ही ऐसा करते हो, केवल वही इस 'झसभ्यासिधान' अपराध- के श्रपराधी दो, यह बात भी तो नहीं, राजशेस्वर कददते हैं-- “*तदिदं श्रुतों शाख्ने चोपलम्यते' ने ने ने -. इस प्रकारका वणुन--जिसे तुम झसभ्य श्रौर झश्लील कहते हो, श्रतियांमें श्ौर शास्त्रौमें भी तो पाया जाता है । इसके श्ागे कुछ श्रतियां और शास्त्रवचन उद्धत करके राजशेखरने श्रपने उक्त मतकी पुष्टि की है। उनके उद्श्चुत चचनोके आगे कवियाँके “झ्न्ठील” वर्णन भी लज्जासे मुंह छिपाते वास्तवमें देखा जाय तो कवियोपर सभ्यता या अन्छी लताके प्रचारका दोषारोपण करना. उनके साथ झन्यायं करना है, कचवियोंने झग्ठीलताकों स्वयं दोष मानकर उससे बचे रददनेका उपदेश दिया है, काव्य लता एक मुख्य दोष माना गया दै, फ़िर कवि झम्छीलताका उपदेश देनेके लिये काव्यरचना कर॑ यह केसे माना जा कह, नि टू नुलनवुसवनममममममधनसममममसुनमनवा, न एस




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