साहित्य शास्त्रीय समाधान | Sahitya shastreey Samadhan

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Sahitya shastreey Samadhan by शंकर देव अवतरे - Shankar Dev Avtare

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १६ ] नियम नहीं है। साधारणीकरण के लिए आलंबनत्व धर्म को बात च्ठाने से यह न समकना चाहिए कि आलंबनत्व धम दो सवसामान्य धर्मों या गुणों का होगा तो फिर सामान्य या साधारण का क्या साघारणीकरण असाधारण या विशेष का साधारणीकरण ही हो सकता है। बात यह है के काव्य या. साहित्य के निर्माण में एक प्रयत्नपक्ष होता है दर दूसरा भावना श्ौर भोग का प्रक्रियापक्ष होता है । निर्माता को किसी विशेष को कल्पना इस रूप में करनी चाहिए कि उसमें सबका झाकषण हो सके । कल्पना काव्य में विशेष की ही होती है । सुख-दुःख तो सभी में होते हैं । पर किसी विशेष के सुख-दुःख ही बहाँ साघारण होते हैं । इसे यों समभकना चाहिए कि रास और सीता के प्रेम की व्यंजना यदि हो रही है तो उनमें नायक-नायिका का आलंबनत्व धर्म होना आवश्यक है | साधारणीकरण में यह बाधा नहीं उठती कि राम और सोता तो उपास्य हैं। उपासक श्ंगार का आस्वाद कैसा पाएगा । राम और सीता के पारस्परिक प्रेम के बीच औदचित्य होने से यह बाघा नहीं आती । राम और सीता के प्रेम से शंगार रस की अनुभूति ओर राम-सीता के उपास्यरूप में उपस्थित किए जाने से भक्ति की अनुभूति निबंध हो सकती है। इसे यों समकिए कि जहाँ कवि भक्ति के आलंबनरूप में राम ओर सीता को नपस्थित न करके केवल पति-पत्नी-प्रेम के आलंबसाश्रयरूप में ही उपस्थित करेगा वहाँ स्थिति एक ही होगी दुद्दरी स्थिति न होगी । दुह्री स्थिति से घबराने की कोई बात नहीं । कवि भक्ति का झाश्रय है अतः तादात्म्य उसके साथ हो गया । _ कोई कह सकता है कि कवि को मूल अनुभूति से ही तादात्म्य क्यों न मान लिया जाए । यहाँ इतना हो कहना पयीप्त है. कि




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