मज्झिम-निकाय | Majjhim-Nikaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ खा ईश्वरके साननेपर जैसा कि पहले कहा गया सनुष्यको उसके अधीन सानना पड़ेगा तब मजुष्य आप ही अपना स्वामी है जैसा चाहे अपनेको बना सकता है--यह नहीं साना जा सकता । फिर सन्लुष्यको झुद्धि और सुक्तिके किए प्रयत्न करनेकी गुंजाइश कहाँ ? फिर तो धर्मीके बताये रास्ते और धर्म भी निष्फक । ईंधरके न साननेपर सबुष्य जो कुछ व्तेलानमें है वद अपने ही कियेसे और जो भविष्यसे होगा वह भी अपनी ही करनीसे । मलुष्यके कास करनेकी स्वतन्त्रता होने ही पर धर्मके बताये रास्तों और घरनेकी सार्थकता हो सकती है । इंधरवादियों द्वारा सदस्राष्दियोंसे घर्मके लिए अश्षान्ति और ख़ूनकी धघाराएँ बदाई जा रही हैं फिर सी इईइवर क्‍यों नहीं निपटारा करता ? चस्तुत इेसवर सजुग्यकी सानसिक सष्टि है । (९२) आत्माकों नित्य न मानना यहाँ पहले हमें थयद समझ लेना दै कि बोद्ध अनात्सताकों कैसे मानते हैं । चुद्धके समय ब्राह्मण परिब्राजक तथा दूसरे सतोंके आचार्य सानते थे कि शरीरके सीतर भोर दरीरसे सिन्न एक नित्य चेतनधक्ति है जिसके आनेसे शरीरसे उप्णता और शानपूवक चेष्टा देखनेमें आती है । जब वह दारीर छोड कर कर्भाघुसार शरीरान्तरमे चली जाती है तो शरीर शीतल चेष्टा रहित हो जाता है । इसी नित्य चेतनदक्तिकों वे लात्सा कहते थे । सासीय ( 560पघं८ ) घर्मोका सी पुनजन्लकों छोड कर वद्दी सत हे । इनके अलावा घुद्धके समयसे दूसरे भी आार्य थे जिनका कहना था-- शरीरसे प्रथव्दू जात्मा कोई चीज़ नहीं शरीरमें मिन्न-सिन् परिसाणमें सिश्चित रसोंके कारण उष्णता और देष्टा वैदा हो जाती है रसॉके परिमाणम कसी-बेदी दोनेसे वह चली जाती है । इस प्रकार आत्मा दारीरसे भिन्न कोई वस्तु नहीं है। डुद्ने एक ओर आत्माका नित्य कूटस्थ सानना दूसरी ओर धरीरके साथ ही आत्माका बविनादा हो जाना--वइन दोनों चरम बातोंको छोड अध्यका रास्ता लिया । उन्होंने कद्दा--भात्मा कोई नित्य कूटस्थ वस्तु नहीं है बद्कि ख़ास कारणोसे रकन्घों ( भूत सन )के ही योगसे उत्पन्न एक शक्ति है जो अन्य वाद्य झूतोंकी माति क्षण-क्षण उत्पन्न और विलीन हो रही है । चित्तके क्षण-क्षण उत्पन्न होने और विलीन होनेपर सी चित्तका अवाह जब तक इस दरीरमें जारी रहता है तब तक शरीर सजीव का जाता है । हसारे अध्यात्स-परिवतन और दारीरके परिवर्तनमें बहुत सप्नानता है । हसारा धारीर क्षण-कझषण घदुकू रहा है । चालीस वर्षका यदद शरीर वहीं नहीं है जो पाँच वर्ष भर बीस चर्षकी अवस्थामसें था और न साठवें वर्षमे वही रद जायगा । एक-एक अणु जिससे हसारा शरीर बना है भ्रति क्षण अपना स्थान नवोत्पज्रके छिए खाली कर रहा है ऐसा होने पर भी हर एक विगत शरीर-निर्सापक परमाणुका उत्तराधिकारी बहुतसी बातोंमे सदश होता है । इस प्रकार यद्यपि हमारा पहले चपंवाला शरीर दसवें चपेसे नहदीं रहता और बीसवें वर्षेसें दुस चर्षवाला थी ़तम हुआ रददता है तो भी सदा परिवतंनके कारण शोटे तौरपर दस दारीरकों एक कहते हैं। इसी प्रकार आत्मा मी क्षण-क्षण बदुरु रहा है लेकिन सदर परिव्तनके कारण उसे एक कहा जाता है । आप अपने दी जीवनको ले लीजिए । दो वर्ष पूर्व दूरसे सी आपको सिगरेटका घुआँ चागवार था नर अब उसे चावसे पीते हैं । दो वर्ष पूरे चिड्योंको स्वयं सार कर फडफडाते देखना आपके लिए सनोर॑जनकी चीज़ थी लेकिन अब आप दूसरे द्वारा शारी जाती चिड़ियाको फडफडाते देख स्वयं फडफड़ाने छगते हैं । यदि आपको अपने सनके झुकाव और उसकी अरवृत्तियों- को लिखते रदनेका अभ्यास है तो आप अपनी पिछली दल वर्षौकी डायरी उठा कर पढ़ डालिये । वहाँ आपको कितने दी विचार ऐसे सिलेंगे जिन्हे दस चर्ष पूर्व आप अपना कहते थे किन्तु दस वर्ष वाद आज यदि कोई आपके ही शब्दोंमें आपके पूर्व विचारोंको आपके सासने रखे तो आप




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