फकीरमोहन सेनापति आत्मजीवन चरित | Phakiiramohan Senaapatii Aatm Jiivan Charit
श्रेणी : स्वसहायता पुस्तक / Self-help book
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11.87 MB
कुल पष्ठ :
212
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)2. शैशव की बातें सन् 1843 ई. के जनवरी महीने में या संवत् (ओड़िआ) 1250 की मकर संक्रांति शुक्रवार को बालेश्वर शहर के मल्लीकाशपुर में मेरा जन्म हुआ। मेरी माता का नाम तुलसीदेई और पिताजी का नाम लक्ष्पणचरण सेनापति है । ज्योतिषियों ने मेरी जन्मपत्री इस भांति बनाई थी 4/2 रोहिणी-वृष सुना है पैदा होते ही मेरे बाएं कान के ऊपरी भाग में छेद करके एक सोने का छलला पहना दिया गया था । मेरे एक बड़े भाई थे चैतन्यचरण । मेरे जन्म के पहले ही वे परतोक को प्राप्त हुए । लोगों में यह विश्वास था कि अगर बड़ा लड़का मर गया हो और उसके छोटे भाई के पैदा होते ही उसके कान में छेद कर दिया जाए तो यमराज उसे अग्राह्य मानकर नहीं ले जाते हैं। बचपन में वैसे मैंने कइयों के कानों में छेद होते देखे हैं। मैं जब एक साल पांच महीने का था तब पिताजी जगन्नाथजी की रथ-यात्रा देखने के लिए पुरी गए थे। लौटते समय भुवनेश्वर में विसूचिका (हैजे) से पीड़ित हो लोकांतर को प्राप्त हुए। गांव के कई लोग उनके सहयात्री थे साथ में उनकी माताजी (ठाकुर मां) भी थीं। ठाकुर मां से सुना है कि भुवनेश्वर मंदिर के समीप स्थित बिंदुसागर पुष्करिणी के पत्थर-घाट पर पिताजी ने प्राण त्यागे । उनके परलोक-गमन का समाचार सुनकर गांव के लोगों ने रोना-पीटना शुरू कर दिया । पिताजी का एक पालतू कुत्ता था। उसने भी उन्हीं के साथ मिलकर चिल्लाना शुरू कर दिया । लोग तो चुप हो गए पर वह शांत नहीं हुआ । पिताजी जिन जगहों पर जाते थे गांव में जिन-जिन जगहों पर उठते-बैठते थे उन्हीं जगहों पर जाकर बार-बार सूंपघ आता और उसी तरह आठ दिन तक बिना खाए-पीए रहकर अंत में मर गया | पिताजी की मृत्यु की खबर सुनकर माताजी ने जो शैया ग्रहण की फिर नहीं उठीं । चौदह महीने तक शारीरिक और मानसिक यंत्रणा भोगकर संवत् 1252 भाद्रपद शुक्ल अष्टमी के दिन उन्होंने प्राण त्याग दिए ।
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