मरण भोज | Maran Bhoj

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Maran Bhoj by पं. पर्मेष्ठिदास जैन - Pt. Parmeshthidas Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रणमोनकी उंस्पस्ति । मत सप्रमाण गजटमें प्रगट करें ताकि झंका निवारण हो । किन्तु इस आावइपक प्रश्नहा उत्तर देनेका साहस न तो गजटके सम्पादकजी दी कर सके भी( न कोई दूसरा । इतका भी कारण स्पष्ट है कि कहीं भी मरणभोजकी शाख्रसम्मतता नहीं मिल सकती । तात्पय यदद है कि मरणमभोजका विधान न तो जेन शास्त्र है जौर न जेनाचारकी दृष्टिसि ही यदद कार्य उचित है। जेनोंपें तो इसका प्रचार मात्र मपने पड़ोसी हिन्दुअंसि हुआ है उन्दींका यह मनुकरण है। यही कारण है कि मानसे सो-पचास वर्षे पूर्व प्राय सारी जेन समाजमें मरणभोजके साधही उसकी भागे पीछेकी तमाम क्रियायें हिन्दू क्रिपामोंके समान ही कीजाती थीं जिनका निपेष करते हुये पं० किशनसिंडजीने अपने क्रिपाकोपें छिखा है कि दगघ क्रिया पाछें परिवार पाणी देय सबे तिथ्वार । दिन तीजेसो तीयो करें भात सराई मसाण हूँ घरे ॥ ५७ ॥॥ प्वांदी सात तवा परि डारि चंदन टिपकी ऐ सरनारि | पाणी दे पाथर पड़काय जिनदंसण फरिकें घरि साय ॥ ५८ सब परियण ज़ीमत तििवार वांवां फरते गांस निकार । सांश् लगे तिनि ढांक रिपाय गाय चछा कु देय पुवाय 1 ५९ ॥| ए सब फ़िया जिन मठ मांिं निंद सझ्ढ भापि सके ना । रस प्रकार मांगे भी तमाम मिथ्पा क्रियाओं वर्णन करके जेनोको उनके स्थागनेका उपदेश दिया है| जौर सष्ट लिखा है कि एक दो या तीन समयमें तो जीव अन्य सवमें पहुंच जाता हैं फिर व्पथे ही दर्यों साडग्द्र रचते हो ? उसके निमित्तसे घ्राप्त (ूता- रपट) निकालना पानी देना मादि सब पिध्यात्व हैं। कारण कि




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