वेद रहस्य खंड 2 | Ved Rhasay Khand 2

Ved Rhasay Khand 2 by श्री अरविन्द - Shri Arvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला अध्याय इन्द्र और अगस्त्य का संचाद ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त १७० ड्न्द्र स सूनमस्ति नो इव कस्तद वेद यदद्भुतम्‌ । भअन्पस्थ चित्तमभि सब्चरेण्यमुताघीत वि. नद्यति ॥१॥ वह (न चूनसु अस्ति) न अब है (नो इव ) न कल होगा (तदु क॒ देद थद्‌ अद्भुतमु) उसे कौन जानता है जो सर्वोच्च और अदभुत है ? (अन्पस्य चित्तमू) अन्य की चेतना (अभि सब्चरेण्यमु) इसकी गति और क्रिया से सचरित तो होती है (उत आधीतम्‌ु) पर जव विचार द्वारा इसके समीप पहुचा जाता है तब (वि नइ्यति) यह उुप्त हो जाता है ॥१॥ अगस्त्य कि न इन्द्र जिघाससि भ्ातरों मरुतस्तव। तेभि कत्पस्व साघुया मा नः समरणे वधी ॥२॥ (इग्दर कि नस जिघाससि) हे इन्द्र तू क्यों हमारा वध करना दाहता हैं? (मरत तव भ्ातर) ये सरत तेरे भाई है। (तेसि साधुया फल्पस्व) उनके साथ सिलकर तु पूर्णता को सिद्ध कर (समरणे) हमें जो सघर्ष करना पड़ रहा है उसमें (न. मा वधघी ) तू हमारा वघ सत कर २० ड्न्द्र कि. नो. भ्ातरगस्त्य सखा सम्तति मन्यसे। थिद्या हि ते यथा सनोध्स्मभ्यमिन्न दित्ससि ॥३॥। अर छृषण्वन्तु वेदि समर्निमिन्धता पुर । तघ्राभृतस्थ चेतन यज्ञ ते तनवावह ॥/४॥ (कि सात अगस्त्य) क्यो ऐ मेरे भाई अगस्त्य (सबा सन्‌) तू मेरा मित्र हे तो भी (न. अतिमन्यसे) अपने दिणार फो मुझसे परे श्७




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