त्रिदोष संग्रह | Tridosh Sangarah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.36 MB
कुल पष्ठ :
140
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१५ कर
वातिक अतिसार ( ऐंटाप्र०05 िंघाव 062 ) भय के कारण बडी
आत मे. विक्षोभदीलता के बढ जाने से थी होता है । इसमे बल्य, बहण तथा
मनःशामक औषधियों से लाभ होता है ।
वातिक आन्त्र विप्रम्भ या भात में गेस होने का रोग बडी आत मे
चिरस्थायी क्षोथ ( 00४५ ) के रहने के कारण वहा उत्पन्न गेस के विलीन
न हो सकने से तया वातिक निबंछता के कारण आत के उसे बाहर न फेक
सकने से होता है जिससे रोगी को पेड, पर हलका दद॑ अथवा भारीपन रहता
है। ईसवगोल की भूसी के साथ थोडी सॉंफ और थोड़े इन्द्रयव और जीरक के
चुर्ण के लेते रहने से आात के अन्दर के शोथ के शान्त होने पर यह रोग अच्छा
हो जाता हैं, यद्यपि यह रोग सुखसाध्य नही है ।
वातिक सलावरोघध ( ए0150062ां2 ) का रोग उसे कहते है जब कोई
निश्चित समय पर मलत्याग के लिए 'नहीं जाता या मलत्याग के वेग की
अवहेलना करता है जिससे सछाशय की. सलानुलोमक शक्ति ( 1 006८ ) कम
हो जाती है और वह वहा उपस्थित मल को यथावतु नही फेकती । इसके लिए
प्रातः साथ मलत्याग का कोई निश्चित समय होना चाहिये, उस पर मलत्याग के
लिए जाना ही चाहिए या गर्म जर पीकर उसके वेग को प्रवृत्त करना चाहिए या
सर्वागासन के द्वारा उसे प्रवृत्त करना चाहिए । संकल्प से भी यह वेग प्रवृत्त
होता हैं। रात की १-२ चम्मच बादामरोगन लेने से या श्रिफला चूणं आदि
थोडा लेने से या पैराफीन १ औनन््स के लेने से या भोजन के प्रारम्भ मे १ तोला
घृत दो-तीन ग्रासो के साथ लेते रहने सें मछाशय की इस निबंछता को दुर किया
जा सकता है ।
वातिक यकृदुबद्धि ( (ाएएफ088 ) का रोग उसे कहते है जब यकृतु के
अन्दर रूक्षता, लघुता खरता, आंदि क्षीणतासुचक लक्षण होकर फिर आमाशय
मे शोथ हो जाता है जिससे मन्दाग्निसुचक आध्मान, अन्नारुचि आदि लक्षण हो
जाते है और बाद मे उपद्रव रूप मे कुछ-कुछ जलोदर के लक्षण होने लगते है ।
इसके लिए रोगी को तक तथा स्नेहरहित दूध, शहद, फल, ग्छुकोज अधिक
मात्रा में मिलना चाहिए। इस रोग के लिए 'गोमूचसाधित्त मण्दुर वटक को
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