केनोपनिषद | Kenopnishad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.51 MB
कुल पष्ठ :
151
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)खण्ड 1 )
चाइरमाध्याथ
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पदु-भाष्य
निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन । |
तद्विज्ञानाथ स गुरुमेबामिगच्छेत्
पु
समित्पाणिः श्रोत्रियं अह्मनिष्टम”' :
।
२1१२३,
( मु० उ० १
इन्याधाथवंणे च ।
एवं हि पिरक्तस्थ प्रत्यमात्म-
निवृत्ताशा नेसय विषय विज्ञान श्रोहुं ।
कतकृप्यता- ____, के
प्रदर्धनम् मन्तु विज्ञातुं च
सामध्यमुपपयते,
नान्यथा । एतसाच प्रत्यगात्म- |
छोकोंकी परीक्षा कर वेराग्यकों प्राप्त
हो जाय, क्योंकि कृत ( कर्म ) के
द्वारा अकृत ( नित्यस्वरूप मोक्ष )
ग्राप्त नहीं हो सकता । उसका
विशेष ज्ञान प्राप्त करनेके दिये तो
उस ( जिज्ञादु ) को हाथमें समिधा
लेकर श्रोत्रिय ओर श्रह्मनिष्ट गुरुके ही
पास जाना चाहिये” इत्यादि ।
केबल इस प्रकारसे ही चिरक्त
पुरुषकों प्रत्यगात्मविषयक चिज्ञानके
श्रवण, मनन ओर साक्षात्कारकी
क्षमता हो सकती है, आर किसी
तरह नहीं । इस. प्रत्यगात्माक
चाक्य-भाष्य
€ ९ क
मवन्ति.... तन्निवतंक्राश्रयप्राण- ,
विज्ञानसदितानि । “'देवयाजी
प्रेयानात्सयाजी वा” इत्युपक्र-
म्यात्मयाजी तु करोति “'इदं
मेडनेनाडं सं स्क्रियते इति” संस्का-
राथमेव कर्माणीति वाज्सनेयके।
ह नि व
“महायचेश्च यभेश्र ब्राह्मीयं
क्रियत तनुः ( मनु० २। २८)
“सयज्नो दान तपश्चेव पावनानि
मनीषिणाम्'' ( गीता १८ । ५४.)
-.
इत्यादिस्सृतेश्च ।
का कक थक ३
प्राणादिविज्ञान॑ व केवल कम- ,
समुचित वा सकामस्य प्राणात्म- ,
संस्कारके ही कारण होते हूं । 'दूबयाजी
श्रेष्ठ हैं या आत्मयाजी” इस प्रकार
आरम्भ करके वाजसनेय श्रुतिमें कहा
है कि आत्मयाजी अपने संस्कारके
लिये ही यह समझकर कम करता है
कि “इससे मेरे इस अंगका संस्कार
होगा” । “यह दरीर महायज्ञ और
यज्ञॉद्वारा ब्रद्यज्ञानकी प्राप्तिके योग्य
किया जाता है ।” '“'्यज्ष, दान और
तप-ये बिद्वानोंकों पवित्र करनेवाले ही
हैं” इत्यादि स्मृतियोँसे भी यहीं बात
सिद्ध होती है ।
अकेला या कमके साथ मिला हुआ
होनेपर भी प्राणादि विज्ञान सकाम
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