और इन्सान मर गया | Or Insaan Mar Gaya

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Or Insaan Mar Gaya by उपेन्द्र नाथ अश्क - UpendraNath Ashak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कातिल कीमों के घर भविष्य में घदचों की जगद लाथं ही पैदा हों--मरे हुए लड़के मोर ऐसी छड़कियाँ ही इस कौम की कोख से जन्म लें जिनका सतोत्व जन्म से पहले ही नष्ट किया जा चुका हो ; और फिर सारी-की- सारी कौम अपने ही आतंक और छूगा के मारे दरियाओं में कूद-कूदकर मर जाय-- गीर इन्सान 'जानंद” के अतर में मोजूद इन्सान की मौति जास्म-दत्या कर ले | खगर मैंने घुनियादी तोर पर इस परिणाम, इस दिस पाशविकता, इस अमानुपिकता के विरुद्ध आपके हृदय में घृणा पैदा कर दी है तो मैं सपने-मायकों कृतकार्य्य समझेंगा । निश्चय ही वर्चरता ते यह घृणा आपको मानवता के निकटतर ले आएगी । यदि इस उपन्यास की सान पर चढ़- कर आपकी उस घूणा की तलवार को इतनी तीखी धार मिल जाय कि फिर भविष्य में जच कभी भापका हाथ किसीके सतीत्व पर उठने छगे, या कभी फिर किसी नन्हें बच्चे की गन तक आपका छुरा पहुँचने लगे, तो घृणा की वही तेज तलवार भाषके उस उठते हुए. हाथ को काट डाले, यह लोहा उस कार के छोहि को कुण्ठित कर दे, लो मैं समझूगा कि मेरी लेखनी . सफल हो गयी, मेरा काम पूर्ण हुआ 1 नह झ्ह डर पं ऊपर की पंक्तियाँ उन लोगों के लिए लिखी गयी हैं जो घृणा की प्रभुत्ता में विश्वास रखते ईं । उनके अतिरिक्त और लोग भी हैं जो दूसरी सीमा पर हैं, उस सीमा पर जहाँ मन के लड्डुओं के सिवा और कुछ दै दी नहीं, जहाँ निराशा श्र विफछता पाप है । ऐसे ही एक मित्र ने इस उपन्यास की पाण्डुछिपि पढ़ने के बाद मुभते कहा या कि “इसमें निराशा बहुत है, मायूसी भर विफलता है, आशा-




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