एक लड़की फूल एक लड़की काँटा | Ek Ladki Phool Ek Ladki Kaanta

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Ek Ladki Phool Ek Ladki Kaanta by मुजतर हाशमी - muztar hashmi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नसरत कितनी ही देर तक प्रवीण के पास बैठी रोती रही श्रौर प्रवीण रु खुदक श्रौर मौन हष्टि से उसे तकती रही । बह मन ही मन यह सोच रही कप थी कि दूसरों को घेये प्रौर शान्ति का पाठ पढ़ाने चाले स्वयं बयों श्रपनी भावनाओं पर अंकुश नहीं रख पाते ? यह कह देना कि भाई की मृत्यु को भूल जाश्नो साधारण-सी बात है किम्तु दूसरे के दुःख तथा क्लेश का अनुमान करने के पदचादु यहू ग्रनुभव होता है कि वाह देने श्रीर कर दिखाने में कितना श्रस्तर है ? नसरत तो रो रही थी श्रौर प्रवीण की कल्पना भूत के श्रंघकार में सीती बातों की टोह लगा रही थी । बीते कुछ महीनों के श्रन्दर-झत्दर जो घटनाएँ सामने श्राई वे उसके नेत्नों में घूम गई । उसमे इन घट- नाशथों पर दोबारा श्रौर तिबारा हुष्टि डाली श्ौर हर बार उसे कोई ने कोई नई बात दिखाई पड़ी । उसकी कल्पना कालेज के बलास रूम से श्रारम्भ होती भर दिल्‍ली के कम्रिस्तान तक पहुँचती श्रोर फिर वापिस श्रा जाती । उसकी कल्पना में दो कब्रें नुत्य करती दिखाई पढ़ती । एक ताजिम की कब थी श्रीर दूसरी ताहिरा की । वह सोचने लगी कि क्या एक साथ दफन होने से नाजिम श्रौर ताहिरा की श्रात्मा को कोई शान्ति प्राप्त हो सकती है ? यह विचार श्राते ही उसके दारदसिक मस्तिष्क ने यह सोचना श्रारम्भ किया कि प्रेम तो मनुष्य की वह संज्ञा विशेष है जो उसके जीवन के साथ ही समाप्त हो जाती है । यदि चह संझा नदवर है तो स्पष्ट है कि उससे उत्पन्न हुआ प्यार भी श्रमर नहीं । ऐसी स्थिति




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