हिंदी शब्दनुशाशन | Hindi Shabdanushasan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) चमराशि ल उद्डाक्यि शगुणाइं । श्रहितेय घोय सुयणत्णाईं। संपह जण॒ णीरसु शिविवसेसु । गुखवन्तउ जाहि सुर-गुरु विकैसु । तहूँ अहम काणणु जि चरण । अहिगाय सहुंव वारि होउ मरणु ।” घनियों श्रौर सामन्तो की नाजबरदारी करने की जगह पुष्पदन्त ने गिरि- कन्दरा के कसेरू खाकर कानन में शरणु लेना पसन्द किया था । वाजपेयी जी भी “श्रमिमानसेर' हैं । वे भी पुष्पदन्त के माग॑ को पकड़ सकते थे; पर परिवार की जिम्मेदारी जो लिरपर है ! इससे भी बढ़कर वे झ्पनी प्रतिभा के मूल्य को. समझते हुए. हिन्दी को श्रपनी देनों से समृद्ध करने की तीव्र लालसा रखते हैं; इसलिए, बहुत पहले छोड़ झाए, पुष्पदन्त के माग को अपना केते सकते हैं ? लिखने के लिए भी बहुत-सी पुस्तकों की श्रावदयकता होती है । एक झाव- दयक पुस्तक के बारे में उन्होंने लिखा है ( २६-७-४५४ )-“बहुत दिनो से मेंगाने की इच्छा थी, पर इतने भी पैसे न बचा पाया ।” कैसी विडम्बना हे ! में इस लेखकों उनकी छोटी-ठी जीवनी नहीं बनाना चाहता, फिर भी जन्मतिथि श्रौर जन्मस्थान दे देना चाहता था । जानता था कि वे ऊपर ही ऊपर मेरा कुछ लिखना पसन्द न करेंगे । पर मैं दुर्वावा के झभमिशाप को छिर-माधे पर चढ़ाने के लिए तैयार था । उन्होंने मेरी जिज्ञासा की पूर्ति निम्न पंक्तियों में की ( २६-७-५४ )--“झापने मेरी जन्मतिथि पूछी है, जो मुझे मालूम नद्दीं; क्योंकि वह सब बताने वाले माता-पिता सुझे दस वर्ष का छोड़ स्वग- वासी हो गए. थे । श्रन्दाना यह है कि इस सदी से दो-तीन वर्ष श्रागे हूँ । मैं ५६-५७ का दोऊँगा । पर यह सब श्राप किस लिए. पूछ रहे हैं? मेरा क्तित्व जो कुछ है, सब्र जानते हैं । कहीं कुछ छुपाना श्नावइ्यक है |”? क्या यह दुनिया एक छ्ण के लिए, भी बर्दाइत करने लायक है, जिसमें अनमोल प्रतिभाश्रों को काम करने का श्रवसर न मिले श्रौर ऐरेगैरे-नत्थूसैरे गुलछुरं उड़ाते राष्ट्रीय श्रीर श्रन्तरराष्ट्रीय मंचपर श्रपना नाच दिखलाएं ?




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