बदरुद्दीन तैयबजी | Badaruddiin Taiyabaji

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Badaruddiin Taiyabaji by लाईक फ़तेहअली - Like FatehAli

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सिद्धांतवादी व्यक्ति थ् देने का फैसला किया गया और इस प्रकार वह पहले गैर-ब्रिटिश गैर-इईसाई अंग्रेज अटार्नी बने । जब उनके भाई ने सॉलिगिटर के रूप में वकालत शुरू की तब बटरु्टीन कंवल पंद्रह वर्ष के थे । परंतु उन्होंने तय किया कि अब वह बरिस्टर बनना ही पसंद करेंगे । उस समय लगता था कि यह अत्यधिक महत्वाकांक्षी इच्छा है । सभी बैरिस्टर सभी जज और यहां तक कि उनके भाई कमरुद्दीन को छोड़ सभी सॉलिसिटर अग्रेजी मूल के ही थे। पेशे के तौर पर कानून अंग्रेजों की जागीर थी-और यह असंभव लगता था कि आवश्यक योग्यता हासिल करने कं बाद भी उन्हें इतना काम मिल सकंगा कि वह आराम से जीवन-निर्वाह कर सकें । यह मुश्किल अवश्य लगता था परंतु वास्तव में इसमें काई औपचारिक या कानूनी अइचन नहीं थी । वे कठिनाइयां या असमर्थताएं जिनके साथ उन ईटिनों भारतीयों को निर्वाह करना पड़ता था दर असल परिस्थितियों की टन थीं । ऐसा कोई कानून नहीं था जो किसी भारतीय को बैरिस्टर बनने से रोके । वास्तविकता यह थी कि बैरिस्टर बनने के लिए किसी भी व्यक्नि को अंग्रेजी भाषा और कानून दोनों में जितना प्रवीण होना पड़ता उसके लिए खूब परिश्रम और धन की जरूरत थी और इसे देखते हुए किसी भी भारतीय के लिए इसकी आकांक्षा करने का शायट प्रश्न ही नहीं उठता । इसके अलावा बैरिस्टर के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त करन क॑ बाट भी यह कल्पना करना कठित प्रतीत होता कि एक भारतीय अंग्रेज-प्रधान वार के पक्षपात और द्वेप का सामना कर सकेगा और पर्याप्त मुकदमे प्राप्त करने में सफन होगा । बहरहाल बैरिस्टर बनने के मार्ग में किसी कानूनी अड्चन का न होना ही बदरुद्दीन के लिए खासा प्रोत्साहन था । वास्तव मे 1858 में भारत की साम्राज्ञी बनने के अवसर पर महारानी विक्टोरिया की उद्घोषणा में विशेष रूप से आश्वासन टिया गया था कि हमारी प्रजा को चाहे वो किसी भी जाति या पंथ की हो मुक्त रूप से और बिना किसी भेद-भाव के हमारी सेवा के पदों में प्रवेश दिया जायेगा । इस महान उट्घाषणा को बंबई में टाउन हाल के चबूतरे पर पढ़ा गया था और संभव है कि बदरुद्दीन उस भीड़ में शामिल थे जो सामने सड़क पर उसे सुनने के लिए खड़ी थी। यह बात और है कि तब तक इसे शब्दों का आडंबर ही माना जाता था जो बगावत के दौरान और बाद में दिये गये जख्मों के लिए मरहम मात्र था और जिसे गंभीरता से नहीं लिया जाता था । इसके बावजूद बदरुद्दीन ने आजीवन इन खूबसूरत शब्दों को याद किया और उन्हें ऐसा वादा माना जो ब्रिटिश सरकार पूरा करेगी। बाद में जनसाधारण में व्यक्त उनके ज्यादातर विचार इस मान्यता पर आधारित थे कि उद्घोषणा में व्यक्त शानदार भाव केवल अतिश्योक्ति से भरे शब्द नहीं थे बल्कि एक वादा थे जिसे पूरा करना ही होगा । शायद पहली बार उन्होंन यह बात तब कही थी जब उन्होंने अपने मन में बैरिस्टर बनने का प्रयत्न करने की ठान ली।




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