आत्म शिक्षा | Atma Shiksha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.15 MB
कुल पष्ठ :
84
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ११ 2
जो भ्रन्य सब हैं वस्तुयें वे ऊपरी ही है सभी,
निर्ज क्मसे उत्पन्न हैं श्रविनाशिता क्यों हो कसी॥ २४
है एकता जब देहके भो साथमे जिसकी नहीं,
पुन्नादिकोंके साथ उसका ऐक्य फिर क्यों हो कहीं ।
जब श्रग-भरसे मनुजके चमडा श्रलग हो जायगाः
तो रोंगटों का छिदरगण कंसे नही खो जायगा ॥॥२७।
संसाररूपी गहनमें है जीव बहु दुख भोगताः
वह बाहरी सब वस्तुओं के साथ कर संयोगता ।
यदि सुक्तिकी है चाह तो फिर जीवगण! सुन लीजिए
मनसे» वचनसेः कायसे उसको श्रलग कर दीजिए॥ २८)
देही! विकल्पित जालको तू टूरदे श्ञीघ्र ही
ससार-वनमें डालने का मृख्य कारण है यही 1
तु सर्गदा सबसे अलग निज श्रात्माका देखनाः
परमातमाके तत्व में तू लोन निजको लेखना ॥२७)॥।
पहले समयमें प्रातमाने कम हैं जैसे किएः
बैसे शुभाशुभ फल यहाँंपर सांप्रतिक उसने लिए ।
यदि दूसरेके कर्म का फल जीवको होजाय तो
हे जीवगण! फिर सफलता निज कमेंकी खोजायतो॥ ३०)
'प्रपने उपाजित कर्म फलको जीव पाते हैं सभी
उसके सिवा कोई किसीको कुछ नहीं देता कभो ।
ऐसा समभना चाहिए एकाग्र सन होकर सदा
दाता भ्रपर है भोयका' इस बुद्धिको खोकर सदा॥३ १।
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