राजवंश के साहित्यकार | Rajvansh Ke Sahityakar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1.2 MB
कुल पष्ठ :
268
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय' - Jitendrakumar Singh 'Sanjay'
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ख्याता नराधिपतय: कवि संश्रयेण,
राजाश्रयेण च गताः कवयः प्रसिद्धिम्। राजा समोऽस्ति न कवेः परमोपकारी,
राज्ञो न चास्ति कविना सदृशः सहायः।।" काव्यमीमांसाकार आचार्य राजशेखर को उपर्युक्त पंक्तियाँ कवि और राजा के परस्पराश्रयी व्यक्तित्व को भलीभाँति रेखांकित करती हैं। वस्तुतः भारतीय नरेजों ने ललित कलाओं के उत्कर्ष और संरक्षण के लिए अभूतपूर्व कार्य किया हैं। भारत की जिस गौरवशाली विरासत पर आज हमें गर्व है, वह तत्त्वतः राजाश्रय में पली बढ़ी है। भारतीय प्रजा ने राजा के व्यक्तित्व में सदैव भगवान् विष्णु के दर्शन किये हैं। भगवान् विष्णु की प्रभविष्णुता और लोकमंगल की अवधारणा हौ भारतीय नरेशों के उदात्त चरित्र को गड़ती है। इसके पीछे गौरवशाली अतीत है। वैदिककाल के ऋषियों द्वारा गढ़ा गया संविधान हीं भारतीय नरेशों को लोकमंगल के पथ पर अग्रसर करता है। वैदिक वाङ्मय के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वैदिकयुग के राजनीतिक जीवन में राजा और राजतन्त्र का महत्त्वपर्ण स्थान था। तत्कालीन भारतीय समाज में विद्यमान राज्यों का नियन्त्रण राजाओं के द्वारा होता था। उस युग में राजा के जो आदर्श, कर्तव्य, उत्तरदायित्व आदि थे, उनका परोक्ष रूप से उल्लेख वैदिक वाङ्मय में किया गया है। वैदिककालीन राजा के कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को साधारणतया दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-1, राज्य की आन्तरिक व्यवस्था, प्रजाहित-पालन आदि से सम्बन्धी कर्तव्य एवं 2, राज्य की वैदेशिक नीति से सम्बन्धित कर्तव्य। इन दोनों प्रकार के 1. आचार्य राजशेखर : काव्यमीमांसा, पृ. 57
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