मध्यभारत की कला, संस्कृति एवं पुरातत्व | Madhya Bharat Ki kala, Sanskriti evam Puratatva
श्रेणी : इतिहास / History, भारत / India
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8.6 MB
कुल पष्ठ :
365
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
डॉ. मोहन लाल चढार का जन्म एक जुलाई 1981 ईस्वी में मध्यप्रदेश के सागर जिले में स्थित पुरातात्विक पुरास्थल एरण में हुआ। इन्होंने डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर मध्यप्रदेश से स्नातक तथा स्नातकोत्तर की उपाधि प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति तथा पुरातत्व विषय में उत्तीर्ण कर दो स्वर्णपदक प्राप्त किये तथा इन्हें डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर द्वारा गौर सम्मान से सम्मानित किया गया। इन्होंने भारतीय इतिहास, भारतीय संस्कृति तथा पुरातत्व विषय में नेट-जेआरएफ, परीक्षा उत्तीर्ण कर सागर विश्वविद्यालय से एरण की ताम्रपाषाण संस्कृति: एक अध्ययन विषय में डाक्टर आफ फिलासफी की उपाधि प्राप्त की तथा विश्वविद
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मध्यप्रदेश के सागर जिले की बीना तहसील में स्थित सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक, सम्पदा से परिपूर्ण पुरास्थल ‘एरण', जिला मुख्यालय से 77 किलोमीटर उत्तर पश्चिम दिशा में बीना नदी के तट पर स्थित है।' एरण मध्यप्रदेश का साँची के पश्चात कला व प्रतिमाओं की विशालता प्रारंभिक गुप्तकालीन मंदिरों व प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण दूसरा महत्वपूर्ण स्थान है। किन्तु आज तक यह स्थान पर्यटकों की पहुँच से दूर है। एरण, साँची से लगभग 22 किलोमीटर व बीना तहसील मुख्यालय से 10 किलोमीटर की दूरी पर है। एरण ने अनेक संस्कृतियों, व सभ्यताओं के उत्थान व पतन का काल देखा है। इसकी जानकारी हमें यहाँ से प्राप्त अनेक पुरावशेषों से होती है। एरण से प्राप्त दूसरी व प्रथम शताब्दी ई.पू. की जनपदीय ताम्रमुद्राओं पर इस नगर का तत्कालीन नाम ‘एरिकिण', 'एरकण्य' अभिलिखित है। गुप्तकालीन अभिलेखों में भी नगर की यही संज्ञा मिलती है। एरण की जीवनदायनी बीना नदी अर्द्धचन्द्राकार रूप में प्रवाहित होती हुई एरण ग्राम को तीन ओर से सुरक्षा प्रदान करती है। चौथी ओर दक्षिण दिशा में लगभग 1750 ई.पू. की ताम्रपाषाणकालीन विशाल सुरक्षा प्राचीर व खाई का निर्माण किया गया था। एरण की भौगोलिक आकृति को दृष्टि में रखते हुए यहाँ नवपाशाण, कायथा और ताम्रपाषण संस्कृति (मालवा संस्कृति) के निर्माताओं ने इस सुरक्षित स्थल को निवास का केन्द्र बनाया। परवर्तीकाल में मौर्यों, शुंगों, सातवाहनों, शकों, नागों, गुप्तों, हूणों, गुर्जर-प्रतिहारों, परमारों, चंदेलों व कल्चुरियों तथा उत्तर मध्यकाल में क्षेत्रीय दांगी शासकों, सल्तनतकालीन व मुगलकालीन शासकों का भी एरण पर आधिपत्य रहा। ताम्रपाषाणयुगीन, शक, नाग और गुप्तकालीन इतिहास के पुननिर्माण में एरण की विशिष्ट भूमिका रही है। 1838 ई. में भारत के प्रसिद्ध पुरातत्वविद् टी.एस. बर्ट ने एरण की सर्वप्रथम खोज की। उन्हीं का अनुकरण करते हुए भारतीय पुरातत्व के प्रथम महानिदेशक जनरल अलेक्जेण्डर कनिंघम ने 1874-75 ई. में इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया और यहाँ से प्राप्त प्राचीन प्रतिमाओं, अभिलेखों तथा मुद्राओं का विवरण आर्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट (जिल्द 9-10) में प्रकाशित करवाया। कालान्तर में एरण को प्रकाश में लाने का कार्य सागर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के विभागाध्यक्ष व भारत के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रो. के.डी. वाजपेयी ने किया। एरण में 1960-61 ई. से 1964-65 ई. तक प्रो. के.डी.
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