अर्हं ध्यान योग (अहं से अर्हं की यात्रा) | Arham Dhyan Yog (Aham se Arham ki Yatra)

Arham Dhyan Yog (Aham se Arham ki Yatra) by मुनि श्री प्रणम्यसागर जी - Muni Shri Pranamya Sagar Ji

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मुनि श्री प्रणम्यसागर जी - Muni Shri Pranamya Sagar Ji

महाकवि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य समुदाय में से एक अनोखी प्रतिभा के धनी, संस्कृत, अंग्रेजी, प्राकृत भाषा में निष्णात, अल्पवय में ही अनेक ग्रंथों की संस्कृत टीका लिखने वाले मुनि श्री प्रणम्य सागर जी ने जनसामान्य के हितकारी पुस्तकों को लिखकर सभी को अपना जीवन जीने की एक नई दिशा दी है। मुनि श्री प्रणम्य सागर जी ने भगवान महावीर के सिद्धांतों को गहराई से चिंतन की कसौटी पर कसते हुए उन्हें बहुत ही सरल भाषा में संजोया है, जो कि उनके ‘गहरे और सरल’ व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करती है।
मुनि श्री का लेखन अंतर्जगत की संपूर्ण यात्रा का एक नेमा अनोखा टिकिट है जो हमारे अंतर्मन को धर्म के अनेक विष

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्वात्मभावना संसार का प्रत्येक प्राणी आत्मा, मन और शरीर आदि का एक संयोगी घटक है। प्रकृति का नियम है कि प्रत्येक कार्य कारण से ही होता है। Cause and effect का सिद्धान्त वैज्ञानिक मान्य है। हर इंसान को या जगत् के प्रत्येक प्राणी मात्र को शरीर आदि मिलते हैं उनका निर्माण वह प्राणी स्वयं अपने से करता है। किसी भगवान या किसी विधाता का इसमें कोई हाथ नहीं है। आत्मा स्वयं शरीर निर्माण का प्रमुख स्रोत है। जीवन इसी चेतना प्राण की देन है। स्वयं किए हुए शुभाशुभ कर्म परमाणुओं का जो आत्मा से बंधन हो जाता है उसी के सहयोग से आत्मा अनेक तरह के शरीर, मन, वचन आदि की उत्पत्ति कर लेता है जो कि जीवन संचालन में उपयोगी है। संयोग / योग अनादि (EternalBeginning less time) से है, जिससे जो चीज बनती है। उसी की विपरीत प्रक्रिया से वही चीज विघटित होती है। आत्मा ने शरीर आदि की रचना की है तो आत्मा ही उस शरीर आदि से मुक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है। यही कारण है कि तीर्थंकरों ने शरीर, वचन और मन की क्रिया को भी योग कहा है तो उसके विपरीत इन क्रियाओं को शनैः शनैः रोकने और सूक्ष्म कर देने का नाम भी योग कहा है। यही कारण है 'योग' उतना ही प्राचीन शब्द है जितना 'आत्मा'। 'योग' का मतलब केवल शरीर संचालन और शारीरिक स्वास्थ्य समझना अधूरा ज्ञान है। योग का सम्बन्ध चित्तवृत्ति को रोकने से है, यह समझना भी पूर्णज्ञान नहीं अपितु बहुत कुछ ज्ञान से है। योग का सम्बन्ध अपने पूर्व अर्जित कर्मों और संस्कारों से छुटकारा प्राप्त करके आत्मा को पूर्ण आनन्द, पूर्ण ज्ञान और पूर्ण शक्ति का अनुभव कराने से है, यह समझना योग को परिपूर्ण समझना है। इसीलिए तीर्थंकरों ने योग को ध्यान और ध्यान को योग कहा है। ब्रह्माण्ड में अनेक जीवनी शक्त्यिाँ विद्यमान हैं उनमें से आत्मा की ज्ञान शक्ति तक पहुँचाने वाली और उसे जाग्रत करने वाली एक शब्द शक्ति है। जिस शब्द शक्ति से ही




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