एरण की ताम्रपाषाण संस्कृति - एक अध्ययन | Eran ki Tamprapashan Sanskriti - Ek Adhyayan
श्रेणी : भारत / India, सभ्यता एवं संस्कृति / Cultural
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
54 MB
कुल पष्ठ :
296
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
डॉ. मोहन लाल चढार का जन्म एक जुलाई 1981 ईस्वी में मध्यप्रदेश के सागर जिले में स्थित पुरातात्विक पुरास्थल एरण में हुआ। इन्होंने डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर मध्यप्रदेश से स्नातक तथा स्नातकोत्तर की उपाधि प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति तथा पुरातत्व विषय में उत्तीर्ण कर दो स्वर्णपदक प्राप्त किये तथा इन्हें डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर द्वारा गौर सम्मान से सम्मानित किया गया। इन्होंने भारतीय इतिहास, भारतीय संस्कृति तथा पुरातत्व विषय में नेट-जेआरएफ, परीक्षा उत्तीर्ण कर सागर विश्वविद्यालय से एरण की ताम्रपाषाण संस्कृति: एक अध्ययन विषय में डाक्टर आफ फिलासफी की उपाधि प्राप्त की तथा विश्वविद
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्राक्कथन
मध्यप्रदेश का प्राचीनतम् सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक सम्पदा से परिपूर्ण 'एरण' सागर जिले की बीना तहसील में सागर नगर से 78 कि.मी. उत्तर-पश्चिम दिशा में बीना नदी के तट पर स्थित है। दूसरी व प्रथम शताब्दी ई.पू. की नगर नाम वाली तासमुद्राओं पर इस नगर का तत्कालीन नान एरिकिण' तथा 'एरकण्य' अभिलिखित है। गुप्तकालीन अभिलेखों में भी नगर की यही संज्ञा मिलती है। इस अंचल की जीवनदायनी बीना नदी अर्द्धचन्द्राकार रूप में प्रवाहित होती हुई एरण ग्राम को तीन ओर से सुरक्षा प्रदान करती है। चौथी ओर (दक्षिण दिशा में) मिट्टी से निर्मित सुरक्षा-प्राचीर है। जिसका निर्माण लगभग 1750 ई.पू. में किया गया था। एरण की भौगोलिक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए यहाँ नवपाषाण, कायथा और ताम्रपाषाण संस्कृति के निर्माताओं ने इस सुरक्षित स्थल को अपने निवास का केन्द्र बनाया था। परवर्तीकाल में मौर्यो, शुंगों, सातवाहनों, शकों, नागों, गुप्तों, हूणों, गुर्जर-प्रतिहारों, कल्चुरियों, चंदेलों, परमारों तथा उत्तर मध्यकाल में क्षेत्रीय दांगी शासकों, सल्तनतकालीन व मुगलकालीन शासकों का भी एरण पर आधिपत्य रहा। नवपाषाणयुगीन, ताम्रपाषाणयुगीन संस्कृति तथा शक, नाग और गुप्तकालीन इतिहास के पुनर्निर्माण में एरण की विशिष्ट भूमिका रही है।
1838 ई. में बिट्रिश कप्तान टी.एस.बर्ट ने एरण की सर्वप्रथम खोज की। उन्हीं का अनुकरण करते हुए भारतीय पुरातत्त्व के जनक जनरल अलेक्जेण्डर कनिंघम ने (1874-75 ई.) इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया और यहाँ से प्राप्त प्राचीन प्रतिमाओं, अभिलेखों तथा मुद्राओं का विवरण आवयोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट (जिल्द 9-10) में प्रकाशित करवाया। कालान्तर में एरण को प्रकाश में लाने का कार्य सागर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के संस्थापक विभागाध्यक्ष प्रो. के.डी. वाजपेयी ने किया। एरण में 1960-61 ई. से 1964-65 ई. तक प्रो. के.डी. बाजपेयी एवं डॉ. उदयवीर सिंह के संयुक्त निर्देशन में सागर विश्वविद्यालय के पुरातत्त्व विभाग द्वारा उत्खनन कार्य सम्पन हुआ। इसके उपरान्त 1984-85 ई. से 1987-88 ई. के दौरान प्रो. सुधाकर पाण्डेय एवं डॉ. विवेकदत्त झा के निर्देशन में उत्खनन कार्य किया गया। 1998 ई. में प्रो. विवेकदत्त झा के निर्देशन में पुनः एरण में उत्खनन किया गया। उत्खनन में यहाँ से हड़प्पा सभ्यता के समकालीन नवपाषाण संस्कृति, कायथा संस्कृति व ताम्रपाषाणयुगीन संस्कृतियों के अवशेष प्राप्त हुए।
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