अध्यात्म योग | Adhyatma Yog
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, योग / Yoga
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9.3 MB
कुल पष्ठ :
658
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
महाकवि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य समुदाय में से एक अनोखी प्रतिभा के धनी, संस्कृत, अंग्रेजी, प्राकृत भाषा में निष्णात, अल्पवय में ही अनेक ग्रंथों की संस्कृत टीका लिखने वाले मुनि श्री प्रणम्य सागर जी ने जनसामान्य के हितकारी पुस्तकों को लिखकर सभी को अपना जीवन जीने की एक नई दिशा दी है। मुनि श्री प्रणम्य सागर जी ने भगवान महावीर के सिद्धांतों को गहराई से चिंतन की कसौटी पर कसते हुए उन्हें बहुत ही सरल भाषा में संजोया है, जो कि उनके ‘गहरे और सरल’ व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करती है।
मुनि श्री का लेखन अंतर्जगत की संपूर्ण यात्रा का एक नेमा अनोखा टिकिट है जो हमारे अंतर्मन को धर्म के अनेक विष
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अध्यात्म योग
क्या एवं क्यों? आज के वैज्ञानिक एवं मशीनी युग में हर व्यक्ति एक मशीन की तरह सुबह से शाम निकालता है जिसके कारण से वह शारीरिक रोगों से तो ग्रसित होता ही है साथ ही मानसिक रोगों से भी पीड़ित रहता है। मानसिक रोगों से मुक्ति मिलने पर शारीरिक रोगों से दूर हुआ जा सकता है। मानसिक रोगों से दूर होने की एक मात्र दवा अध्यात्म है। अध्यात्म के नाम पर आज लोग तरहतरह के योग करते हुए भी देखे जाते हैं और आध्यात्मिक रुचि को बढ़ाने की इच्छा भी रखते हैं। अध्यात्म का संबंध आत्मा से होता है। अधि-आत्मा-अध्यात्म । अर्थात् आत्मा को अधिकृत करके, आत्मा को दृष्टि में रख कर के जो प्रक्रिया शारीरिक योग के साथ अपनायी जाती है उसे अध्यात्म योग कहते हैं। आचार्य पूज्यपाद महाराज एक बहुत महान सैद्धान्तिक, दार्शनिक एवं व्याकरणाचार्य होने के साथ-साथ आध्यात्मिक महापुरुष थे, जिन्होंने अध्यात्म ग्रंथों के रूप में मुख्य रूप से दो ग्रंथ लिखे हैं-इष्टोपदेश एवं समाधितंत्र । दोनों ग्रंथों की विशेषता यह है कि कहीं पर भी जैन शब्द का प्रयोग न करते हुये सामान्य व्यक्ति के लिये अध्यात्म में प्रवेश करने की कला इष्टोपदेश ने सिखाई है तो आत्मा से परमात्मा बनने की कला समाधितंत्र में सिखाई है। इसी इष्टोपदेश ग्रंथ में आचार्य पूज्यपाद महाराज ने एक श्लोक लिखा है
परीषहाद्य-विज्ञानादास्रवस्य निरोधिनी।
जायतेध्यात्मयोगेन, कर्मणामाशु निर्जरा 124॥ जब व्यक्ति अपने शरीर पर होने वाले परीषहों का भी भान नहीं करता और आत्मा का उपयोग आत्मा में ही निमग्न होता है तब सब प्रकार के बाहरी कर्मों का आना रुककर पहले बंध हुये कर्मों की निर्जरा होने लगती है इसी का नाम अध्यात्म योग है। गृहस्थ श्रावक के लिये अध्यात्म में प्रवेश करने के लिये भी यह इष्टोपदेश ग्रंथ अत्यन्त उपादेय है। जो श्रमण हैं उनके लिये समयसार में प्रवेश करने से पहले इस इष्टोपदेश ग्रंथ से अध्यात्म योगी बनना नितान्त आवश्यक है। इष्टोपदेश के माध्यम से अध्यात्म में सभी भव्य जीवों का प्रवेश हो इसीलिये बिजोलिया अतिशय क्षेत्र पर इस ग्रंथ के माध्यम से उपदेश का क्रम चलता रहा। इन उपदेशों से सभी लोग लाभान्वित हों ऐसी भावना करते हुये आचार्य गुरुदेव श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणों में नमोऽस्तु...।
-मुनि प्रणम्यसागर
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