उपन्यासों में आदिवासी चेतना के स्वर | Upanyaso mein Aadivasi Chetna Ke Swar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1.2 MB
कुल पष्ठ :
107
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
➢ GENERAL INFORMATION :-
• NAME : VIJENDRA PRATAP SINGH
• DESIGNATION : ASSISTANT PROFESSOR (HINDI)
• FATHER’S NAME : SHRI OMPRAKASH
• MOTHER’S NAME : SMT. KAILASHI DEVI
• DATE OF BIRTH : 04-06-1975
• DATE OF APPOINTMENT : 25-03-2011
➢ ACADEMIC QUALIFICATION : M.A. (HINDI, LINGUISTICS), P. G. Diploma in Functional Hindi
&Translation, Diploma in Urdu, SLET(Hindi), Diploma in Translation (Ministry of Home), Diploma in Stenography (Ministry of Home), Certificate in Typing(Hindi, English)
➢ Areas of Specialization :
• Linguistics Indian Languages
• Contrastive Linguistics
• Mohan Rakesh Study
• Li
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)हिंदी तथा हिंदीत्तर उपन्यासों में आदिवासी चिंतन
डॉ० विजेंद्र प्रताप सिंह
वर्तमान साहित्य परिदृष्य में दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श के स्वर जिस तीव्रता से मुखरित हो रहे हैं उतनी ही तीव्रता से जनजातीय या आदिवासी विमर्श भी समाज में व्याप्तता जा रहा है। साहित्य की प्रत्येक विधा में जनजातीय साहित्य लेखन हो रहा है। उपन्यास साहित्य की सशक्त विधा के रूप में सर्वसिद्ध है। उपन्यासों के माध्यम से मानवीय मनोविज्ञान का संप्रेषण सहज रूप से दिया जाता रहा है। इस विधा के माध्यम से सांस्कृतिक एवं सामाजिक क्रांतियों को जन्म मिला है। उपन्यास एक व्यक्ति का जीवनवृत्त होता है, एक परिवार का संघर्ष है, एक समाज का यथार्थ रूप तथा संस्कृति का हक है, साथ ही कला का एक उत्कृष्ट स्वरूप है। आधुनिक हिंदी उपन्यास का प्रमुख एवं केंद्रीय स्वर मानवजीवन से जुड़ाव और सामाजिक सरोकार है। नये उपन्यासकारों ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में पूर्व से अलग पहचान बनाने के दिशा में अभूतपूर्व पहल की है। देश के दूर-दराज के आंचलों में रहने वाले आदिवासियों के जीवन, संस्कृति एवं संघर्ष को उजागर करते हुए इसे आन्दोलन का रूप प्रदान किया है।
साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में इस विधा का व्यापक प्रसार हुआ है एवं शैली को विकसित रूप मिला है। उपन्यास वर्तमान जीवन की जटिलताओं और सुक्ष्मता को सही रूप में अभिव्यक्ति देने वाली एकमात्र विधा है। "सभ्यता न वेशभूषा है, न पोशाक। संस्कृति पाउडर, टीका, सरकारी चाकरी, वेतन नहीं है। दोपहर के भोजन में गुड़ और दलिया तथा उबली दाल के लिए कतार बाँध स्कूल आना शिक्षा नहीं। खाद, बीज, भैंसा, मुर्गी पालना प्रगति नहीं है। आदमी सभ्यता बनाता है या सभ्यता आदमी को बनाती है? (प्रतिभा राय, आदिभूमि, पृ.सं. 294)
इससे अधिक आदिवासियों क्या हैं? उनकी इस समाज में क्या भूमिका कहने की आवश्यकता नहीं है। जहां तक ज्ञात है भले ही आदिवासी विमर्श से संबंधित उपन्यासों की पृष्ठभूमि स्वतंत्रता पूर्व की रही परंतु आदिवासी जीवन से संबंधित उपन्यासों का प्रकाशन स्वतंत्रता पश्चात् ही हुआ। नव जाग्रति एवं चेतना तथा नगरीय जीवन की यांत्रिकता से ऊबे हुए साहित्यकारों ने आंचलिक साहित्य
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