वेदांत विचार | Vedant Vichar

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Vedant Vichar by अज्ञात - Unknown

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परमात्मने नमः न न्या भे व रः वदान्तावचार र अनिस नसेन “ वेदवैय् सर्वेरहसेव वेद्यो वेदाम्तकृद्ेदविदेव चाहम्‌ । ? भगवट्टीता अ० १५७ ० १५ श्रीभगवद्दीतामां श्रीकृप्ण भगवान्‌ चदे छे केः--सर्चे चेदोए्‌ करी हं (नपरमात्मा ) ज वेद्य (ऱ्चेदितिव्य-जाणवा योग्य-छे )) चेदान्तकृत्‌ (न्वेदान्तना अ्थनो संप्रदायकताँ ) अने चेदवित्त्‌ (-्वेदान्तना अर्थनो काता ) प. पण इं ज छं. वेदान्त नामऱ्येदनो अम्त-किंवा अचसखान-भाग, अथचा वेदनो शिसोभाग. चेदोती सर्व ्ाखाअ(ना उत्तर भाग चिपे पठ्यमान जे श्रेथो,-अर्थात्‌ प्रत्य- गात्मभूत परमब्रह्म (प) विशिए्टचिपयवती' अने आत्यन्तिक संसारनिचून्ति-ब्रह्ममातिरूप प्रयोञजनवती ( ब्रह्मांत्मेक्यनो खाक्षा- त्कार छे विषय जेनी पवी ) प्रमाणभूता उपनिपषदो-ए चेदान्त. अने ते अन्त श्वुतिओ उपनिपदू तेओने उपकारि वेदान्त. १ झा लेखम! जे समत होय ते प्रायशः शकरोक्तिउपजीव्यक छे, अर्थात्‌ परमपुरुपार्यदायिनी शकरनी वाणीमाथी अ आ छेखलु बहुकरी उपजीवन छे. अने तेम जे समत होय ते ज भात शकरवाणीनु गण, अने सूमिति आदि शाख्रो सम तेने युवमुसथी वा तज््ञाताथी अम्यासवानी तया स्वतः विचार- वानी घपेक्ष ठे. २ विलक्षण, विशैषणयुक्त विषयवती-विचारयोग्य चातयवाली.




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