वेदार्थ दीपक निरुक्त भाष्य | Vedaartha Diipak Nirukta Bhaashhy

Vedaartha Diipak Nirukta Bhaashhy by चन्द्रमणि - Chandramani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० 3 की भूमिका को देखने से यास्क-गुरु के नाम का ज्ञान और होता है | यड्वा ने भूमिका के प्रारम्भ में अपने अभोष्र देवता गणेश का स्मरण करके तत्पश्चात्‌ यास्क-गुर शिपिबिए निरुक्कर्ता यास्क अपने पितामह वागीश्वर और अपने पिता. यश्षेश्वर इन सब की नंपश चन्दना की है। वहां के शब्द इसप्रकार हैं-- नम ख्रघाम्ने शिपिि्टनाम्ने निरुक्त विद्यानिगमप्रतिष्ठास । वाप यास्कों विदिधेषु यागे-ष्वनेन चाम्नायमभिष्टुवान ॥। प्रयमाभि यारकभास्करं यो हतमस प्रकाशितपद/थेः | यस्य भुवनन्रयीमिव गाव प्रकटां ज्रयीं वितन्वन्ति ॥। बागीश्वरं बन्दे पितामहं देवर।जयज्वा दुहम्‌ || चाय शा ब्दिकारना वन्दें त.ते यज्ञेश्वरायं पं इस प्रसडू से ज्ञांत होता है कि यास्क के समय निरुक्तचिद्या नष्ट हो चुका थी और उसके नए होने के साथ २ घेदा्थ-ज्ञान को क्लिश्ता के कारण वेद का प्रचार शिथिल पड़ गया और उस से कर्मकाणड लुप्तप्राय हो गया । ज्ञात होंता है कि संभवत यही कारण था कि यास्क के समय कोौत्स जैसे प्रबल नास्सिक विज्ञानों का प्रादु्भाव हुआ और उनका यास्क्राचाय को तीत्र खरडन करना पड़ा | और वेद्चिद्याप्रदीप के बुक जाने पर ऐसे विकट समय में शिपिविष्ट नामक चेदज्ञ विद्वान बड़ा विख्यात हुआ | उससे प्रेरित होकर यास्क ने नष्ट हुई निरुक्तविद्या को पुनः प्राप्त किया भर विधिघ यागों की सिद्धि के छिए घेद का स्तवन किया | इसी आशय की पुष्टि में महाभारत की साकि भी दर्शनीय है | शान्तिपव ३४३ अ० के ७१-७३ स्ठोक इसप्रकार हैं-- शिपिवि्टेति चाख्यायां हीनरे।मा च यो दुभवत्‌ | तेनात्रिप्ट तु यत्किथचिष्छिपिविशेति च स्मृत ॥ यास्का माशृषिक्येप्रो नैकयज्ेषु गीतवान्‌ | शेपिविष्ट इति शस्माद्‌ गुहानामघरों ह्याहम्‌ ॥। स्तुत्वा मां शिपिवि्ेति यास्क ऋषषेरुदारधी |




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