पर्दा | 1438 Parda 1946

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1438 Parda   1946 by सत्यदेव विद्यालंकार - Satyadev Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ११ ] कि सामाजिक दृ्रसि सबसे अधिक पिछड़ा हुआ प्रान्‍्त राजपूताना है और ख़ियोंकी सबसे अधिक द्यनीय दशा मारवाड़ी समाजमें है। विद्वारकी सामाजिक अवस्थाके अध्ययन करनेके बाद उक्त धारणा वद्ढनी पड़ीं ओर यह अनुभव हुआ कि समाज-सुधारके क्षेत्रें दिहार राजपूतानासे थी अधिक पिछड़ा हुआ है और दिह्दारी महिढाओंकी अवस्था मारवाड़ी मदिलाओंसे भी अधिक देयनीय है।। विहारसे लोटनेपर बिद्दारकी सामाजिक दुरवस्था और बिहारी महिछाओंकी द्यनीय स्थिततिके सम्चन्धमें कलकत्ताके साप्ताहिक 'विश्वमित्र' मे कुछ ठिखा भी था | “आदूर्श-हिन्दी-पुस्तकालय' नामको प्रकाशन संश्थाके संचा- उक श्री गिरिघरजी शुकने इसी समय इस पुम्तकफे छिसनेका प्रस्ताव पेश किया था कि यथाशीघ्र पुस्तक छिखी जाय और प्रकाशित भी कर दी जाय । कछकत्तासे देहठी आकर कुछ कागज-पत्र और पुस्तक वटोर कर उसकी तैयारीमें गा ही था . कि ऐसी भयानक बीसारीने आ घेरा कि उससे छुटकारा पाकर यह पुनजल्‍न प्राप्त किया है । छगभग नो-दस महीने घीमारी ओर कमजोरीके विस्तर पर पढ़े हुए इस पुस्तकका ध्यान वरावर बना रहा । बंधों और ढाकरों की सठाहसे वायु-परिवर्सन और स्वास्य- सुधारके लिये किसी पहाड़ी स्थानपर जाना आवश्यक हो गया। राजपुर आनेके वाद शरीरमें बैठने, उठने और छिखनेका सामथ्य आाते ही इसका काम शुर्ध कर दिया । हिमालयके जिस प्रदेशके शिरोभूपणके स्थानपर विराजमान ससूरी सदा चसचम करता स् हे और पैरोंके आमूपणोंकी शोभा देदरादून वनाये रखता ट्द इसीके कटिभागसें कर्षनीकी तरह छिपटा हुआ 'राजपुर एकास्त,




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