देवताओ की छाया में | Devatao Ki Chhaya Me

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Devatao Ki Chhaya Me by उपेन्द्रनाथ अश्क - Upendranath Ashk

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ का भी प्रबंघ कर ले तो एक दम वह किस प्रकार नाटक प्रास कर सकता है । उसके लिये उस सूरत में कोई चारा नहीं रद्द जाता कि वदद पश्चिम के नाटकों का उल्था करके उन्हें स्टेज करे । इसके श्रतिरिक्त में विनयपूवक पूछना चाइहता हूँ कि यदि श्रौर दस वर्ष तक भारत में स्टेज इसी प्रमाद की हालत में रहे तो क्या हमें चुपचाप हाथ पर हाथ रखे वेठे रहना चाहिए ? क्या दें श्रपनी वर्तमान जड़ता पर संतोष कर लेना चाहिए उर्दू हिन्दी सादित्य से नाटक श्रभी पूणुरूप से निवौसित नहीं हुए और इधर तो स्त्० प्रसाद जी ने नाटक साहित्य मैं नयी जान सी डाल दी है | हुआ सिर्फ यदद है कि दर्शकों के बदले श्र वे श्रधिकतर पाठकों के लिये लिखे जाने लगे हैं । श्रत्र केवल शिक्षितवर्ग ही उनका रसास्वा- दन कर सकता हैं श्रार भारत के करोड़ों श्राशिक्षत उनके रस से वचित दी रद्द जाते हैं । ज़रूरत इस वात की दै कि एक एक्ट के श्रच्छे नायक लिखे जाएँ खेले जाएँ श्रौर रगमच द्वारा उन लोगें फें दिलों तक पहुँचाए. जाए जो श्रभी तक साहित्य तथा कला में किछी प्रकार की दिलचस्पी नहीं लेते । यद्यपि एकाकी जिन मैं काकिया भी शामिल हैं श्रभी ने मोफियों प्राय एक दृश्य की होती हैं दालाकि एकॉंकी एक से लेकर सात सान अर ठ ाठ दृश्यों तक के लिखे गए हैं श्रौर प्रायः ये एक घटना विचार का संकिप्ततम चिन्नणमात्र होती हैं--जैमे प्रस्तुत संग्रह का एकाकों पहेली | न के




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