धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र | Dharmakshetra Kurukshetra

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Dharmakshetra Kurukshetra by के. एल. ढल - K. L. Dhal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर्मझषेत्र कुरुक्षेत्र नामकरण कुरुदेज्र से शाब्दिक अर्थ हैं कुक का क्षेत्र अर्थात कु के नाम से ही इस सत्र का नाम कुक भ्रेत्र पड़ा । कुरू भरतंबंशी महाराज संवरण के पुत्र थे । सूर्मकन्या तपती उनकी मात्रा थी। कुर की शुधांगी तथा वाहिनी नाम की दो स्त्रियां थी। चाहिनी के पांच पुत्र थे जिसमें कनिष्ट का नाम जनपेजय था जिसके बंशज कक एवं पाण्डु हुए । कुरु के अन्य पुर्नों के नाम विदूर्ध अश्वरत अभिष्यत्‌ चेत्रथ तथा मुनि और जनमिजय हैं। इरा प्रकार कुरु कौरवों एवं पाण्डजों के पूर्वज थे इमका वंश भी इन्हीं के नामानुसार कुरु नाम गो प्रसिद्ध हुआ। राज्य भार एहण करने के याद इन्होंने पृथ्वी पर श्रमण करना प्राम किया। जब वे समन्तपंचक पहुंचे तो कु र ने उस श्षत्र को महाफलदाया बनाने का निश्चय करते हुए सोने के हल से यहां कृपिकार्य प्रागम्प किया और अनेक वर्पों तक इस भ्षेत्र कों बार बार कर्पित किया। इस प्रकार उन्हें कृषि सगरर्य में प्रवृत्त देखबर इन्द्र नें उनसे जाकर कटोर परिश्रम का कारण पूछा । कुरु नें कहा जो भी स्यक्ति यहां परेंगा बह पुण्य लोक में जाएगा। इन्द्र उनका परिहास करते हुए चले गये। इन्द्रलोक जाकर उन्होंने इस बात को सभी देवताओं को भी चतलाया | देवताओं ने इन्द्र से कहा यदि संभव हो तो कु को अपने अनुकूल बना लो अन्यथा यदिं लीग वहां यज्ञ करते हुए हमारा भाग दिये थिना ही स्वर्गलोक चल गये तो हमारा भाग नष्ट हो जायेगा । तब इन्द्र ने पुन कुर के गास जाकर कहा नरश्रेष्ठ तुम व्यर्थ ही इस प्रकार का कष्ट कर रहे हों। यदि नेक भी पशु पक्षी या मनुष्य निशाहार पह कर अथवा युद्ध करके यहां मारा जायेगा तो ग्वर्ग का भागी होगा। छुरुं नें यह बात मान ली यावेदतन्मया कृष्टं धर्मक्षेत्र त्दस्तु च वापनपुराणा । 23/33/#| आदि काल से कुरुक्षेत्र नाम हमें विभिन्न वेदों ग्राह्मणग्रन्थों एवं पुराणों मैं मिलता है। पुराणों के अनुसार यह क्षेत्र अह्मवेदि के नाम से जाना जाता था। पुनः इस क्षेत्र का नाम समन्तपंचक हुआ और अन्त में कुरुकषेत्र। महाभारत से पूर्य इस क्षेत्र का नाम कुरुक्षेत्र के . साध-साध श्रजापति की वेदी पंचबिश ब्राह्मण में भी प्राप्त होता है। बामन पुराण में ब्रह्मा की पांच वेदियों को ब्रह्मसेदी कहा गया हैं। पांचों वेदियों में प्रयो मध्यवेदि हैं। अनन्त फल दाधिनी बिरजा दक्षिण बेदी है। तीन कुण्डों में सुशोभित पुप्कर पश्चिम बेदी | अव्यंय समन्तपंचक उत्तरवेदी है तथा पूर्णबेददी गया है। प्रयागों मध्यमा बेंदिं गया क्िर । विरजों देक्षिणा वेडिरनन्त फल टाधिनी।।




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