रीति - श्रृंगार | Reeti-shrangar

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Reeti-shrangar by डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रीति श्वज्जार २ सुनिके प्रकास उपहास निशि-वासर कौ कीचौ है सुकेशव सु वास जाय कै अकास | यद्यपि अनेक चन्द्र साथ सोर-पक्ष तऊ जीत्यी एक चद्र-मुख रूप तेरे केदापास ॥। तन आपने भाये श्यंगार नहीं ये श्ँगार स्गार श्गार वृथा हीं । ब्रज-भूषण नेननि भूख हैं जाको सुतो पे श्गार उतारे न जाही ॥ सब होत सुगंध नहीं तो सुगंध सुगंध मे जाति सु गंध वृथा हों । सखि तोहि ते हैं सब भुषण भुषित भूषण तौ. तुव भूषित नाही ॥ लोचन बीच चूभी रुचि राधे की केदाव॒ कँसे हूं जाति न काढ़ी । सानहू मेरे. गही. अनुरागिनि कुंकुस-पंक अंकित... गाढ़ी ॥। मेरी यो लागि रही तनुता जनु यो द्यूति नील निचोल की बाढी । मेरे ही मानौ. हिये कहें सुघति यों अरबिन्द दिये. मुख ठाढ़ी ॥। नील निचोल ढदुराइ कपोल विलोकति ही किये ओलिक तोही । जानि परी हँसि बोलति भीतर भाजि... गई. अवलोकति मोह्टी ॥। बुझ्िबे की जक लागी है कान्दृहि केबव॒ के रुचि रूप लिलोही । गोरस की सों बबा की सों तोहि किबार लगी कहि मेरो सो कोही ।॥।




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