कल्याण [1979] | Kalyan [1979]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हि थे ३. दीय ३ हा ी ह +# अथववदाय सूयापोनपदूक्ा भावाथ ण पु अधथवंवेदीय स्॒योंपनिषद्का भावार्थ आदित्यकी स्वेव्यापकता--सयमन्त्रके जपका माहात्म्य हुरि। डँ | अब सूयदेवतासम्बन्धी अथर्ववेदीय मन्त्नोकी व्याख्या करेंगे । इस सूयंदेवसम्बन्धी अथर्वाद्धि- रस-मन्त्रके घ्रह्मा ऋषि हैं। गायत्री छन्द हैं । आदित्य देवता हैं । हुंसः सो5हम्‌ अग्नि नारायणयुक्त वीज है । दस्लेखा दाक्ति है । वियत्‌ आदि सट्टिसे सथुक्त कीलक है। चाये प्रकारके पुरुषा्थोकी सिद्धिमे इस मन्त्रका विनियोग किया जाता है । छः स्वरोपर आरुढ़ बीजके साथ छः अड़ोवाले छाल कमलपर स्थित सात घोडोंवाले रथपर सवार हिंरण्यवर्ण चतुभुंज तथा. चारो दाथोमे क्रमदा। दो कमछ तथा चर और अभयसुद्रा धारण किये . कालचक्रके प्रणेता श्रीसूर्यनारायणकों जो इस प्रकार जानता है निश्चयपूर्वक वही ब्राह्मण ( ब्रह्मवेत्ता ) है । जों प्रणवके अर्थशूत सबच्चिदानन्द्मय तथा भ्रूभ सुवः और स्तर सरूपसे न्रिखुवनमय एवं सम्पूर्ण जगतूकी सष्टि करनेवाले हैं उन भगवान्‌ सूयदेवके स श्रेष्ठ तेजका हम ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धियो को प्रेरणा देते रहते हैं । भगवान्‌ सुर्यनाययण सम्पूर्ण जड्टम तथा स्थावर-जगत्‌के वआमात्मा हैं निश्चयपूर्वक सूर्यनारायणसे ही ये भूत उत्पन्न होते हैं। सूयसे यज्ञ मेघ मन्न ( बल-वीय ) और आत्मा ( चेतना ) का आविर्भाव दोता है । आदित्य आपको हमारा नमस्कार है । आप ही प्रत्यक्ष कर्मकर्ता हैं आप ही प्रस्यनन ब्रह्म हैं । आप ही प्रत्यक्ष विष्णु हैं आप ही प्रत्यक्ष रुद्र हैं । आप ही प्रत्यक्ष ऋग्वेद है । आप ही प्रत्यल यजुर्वेद हैं । आप ही प्रत्यक्ष सामवेद हैं । आप ही प्रत्यक्ष अव्वेद हैं । आप ही समस्त छन्दस्वरूप हैं । आदित्यसे वायु उत्पन्न दोती है । आदित्यसे भूमि उत्पन्न होती है आदित्यसे जठ उत्पन्न होता है । आदित्यसे ज्योति ( अधि ) उत्पन्न होती है। आदित्यसे आकाश और दिदाएँ उत्पन्न होती हैं । आदित्यसे देवता उत्पन्न होते हैं। आदित्यसे वेद उत्पन्न होते हैं। निश्चय ही ये आदित्यदेवता इस ब्रह्माप्ड-मण्डठकों तपाते ( गर्मी देते ) हैं। वे आदित्य ब्रह्म हैं । आदित्य ही अन्तःकरण अर्थात्‌ मन) बुद्धि चित्त और आइहक्लारूप हैं । आदित्य ही प्राण अपान समान व्यान और उदान--इन पेचों प्राणोके रूपमे विरजते हैं । आदित्य ही श्रोत्र त्वचा) चक्षु रसना और घाण--इन पॉच इन्द्रियोके रूपमें का कर रहे हैं। आदित्य ही वाक पाणि पाद पायु और उपस्थ--ये पॉचों कर्मेन्द्रिय हैं । आदित्य दी दब्द स्पर्ग रूप रस और गन्ध-- ये ज्ञानेन्द्रियोके पाँच विषय हैं । आदित्य ही वचन आदान रमन मछढ-त्याग और आनन्द--यें कर्मेन्ट्रियोके पौँच विपय बन रहे हैं । आनन्दमय ज्ञानमय और विज्ञानमय आदित्य दी हैं। मित्रदेवता तथा सूर्यदेवको नमस्कार है । प्रभो आप मृत्युसे मेरी रक्षा करे । दीसिमान तथा विदवके कारणरूप सू नारायणकों नमस्कार है । सूर्यसे सम्पूर्ण चरावर जीव उत्पन्न होते हैं सूर्यके द्वारा ही उनका पालन होता है और फिर सूर्यमे ही वे लयको प्राप्त होते हैं। जो सूर्यनारायण हैं वह मैं ही हूँ । सबिता देवता हमारे नेत्र हैं तथा पके द्वारा पुण्यकाठका आख्यान करनेके कारण जो पर्वतनामसे प्रसिद्ध हैं वे सूय ही हमारे चक्षु हैं । सबको धारण करनेवाले धाता नामसे प्रसिद्ध वे आदित्यदेव हमारे नेत्रोको इृष्टिकक्ति प्रदान करें । ( श्रीसूयंगायत्री-- ) हम भगवान्‌ आदित्यकों जानते हूँ--पूजते हैं हम सदर ( अनन्त ) किरणोंसे मण्डित भगवान्‌ सूर्यनारायणका ध्यान करते है वे स्यदेव हमसे प्रेरणा प्रदान करें । ( आदित्याय विदूमहे सहस्त- किरणाय घीमहि। तन्नः सु्यः प्रचोद्यात्‌.।) पीछे सविता देवता हैं आगे सबितादेवता हैं बॉय सबिता- देवता हैं और दक्षिण भागमे भी ( तथा ऊपर-नीचे भी ) सविता देवता हैं । सवितादेवता हमारे लिये सब कुछ प्रसव (उत्पन्न) करे ( सभी अभी चस्तुँ दे ) सबितादेवता हमें दीघ आयु प्रदान करे । 5० यह एकाक्षर मन्त्र ब्रह्म है । ब्यूणि यह दो अक्षसेका मन्त्र है स्सूय। यह दो अक्षरोंका मन्त्र है। आदित्यः इस सन्न्मे तीन अक्षर हैं। इन सबको मिलाकर सूर्यनारायणका अशाक्षर महामन्त्-- ढं घुणि। स्टूय आदित्योमू वनता है । यद्दी अथर्वाज्ञिसस सुर्यमन्त्र है | इस मन्त्रका जो प्रतिदिन जप करता है वही ग्राह्षण ( न्रह्मवेत्ता ) होता है वही त्राहमण होता है।




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