महाभारत (संस्कृत मूल ) | Mahabharat (sanskirat Mool)
श्रेणी : धार्मिक / Religious, हिंदू - Hinduism
लेखक :
पाण्डेय श्री रामनारायण दत्त जी शास्त्री - pandey shri ramnarayan dutt ji shastri,
हनुमान प्रसाद पोद्दार - Hanuman Prasad Poddar
हनुमान प्रसाद पोद्दार - Hanuman Prasad Poddar
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
75.45 MB
कुल पष्ठ :
896
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
पाण्डेय श्री रामनारायण दत्त जी शास्त्री - pandey shri ramnarayan dutt ji shastri
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हनुमान प्रसाद पोद्दार - Hanuman Prasad Poddar
He was great saint.He was co-founder Of GEETAPRESS Gorakhpur. Once He got Darshan of a Himalayan saint, who directed him to re stablish vadik sahitya. From that day he worked towards stablish Geeta press.
He was real vaishnava ,Great devoty of Sri Radha Krishna.
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दानधर्मपचे |] पद्चादत्तमो 5ध्यायः प्ग्देदेर् रथ वात तववलवतववमननकवकवननवनवनननवनवकववववविनिजञ एपपपपाााााााथाथाााााााायययययययाययायायसससटटडडडडडडडडअड-- न चास्य मातापितरो ज्ञायेतां स हि कच्चिमः ॥ २० ॥ भीष्मजी ने कहा--युधिष्टिर माता-पिताने जिसे रास्तेपर त्याग दिया हो और पता लगानिपर भी जिसके माता- पिताका ज्ञान न हो सके उस बालकका जो पालन करता है उसीका वह कत्रिम पुत्र माना जाता है ॥ झड़ ॥ मस्वामिकस्य स्वामित्व यस्सिन् सस्प्रति लक्ष्यते । यो वर्ण पोषयेत्ू त॑ च॒ तद्र्णस्तस्य जायते ॥ र१ ॥ वर्तमान समयमें जो उस अनाथ बच्चेका स्वामी दिखायी देता है और उसका पालन-पोषण करता है उसका जो वर्ण है वद्दी उस बच्चेका भी वर्ण हो जाता है ॥ रु॥ युधिष्टिर उवाच कथमस्य प्रयोक्तच्यः संस्कारः कस्य वा कथम् देया कन्या कथं चेति तन्मे श्रूहि पितामह ॥ २२ ॥ युधिष्टिरने पूछा--पितामह ऐसे बालकका संस्कार कैसे और किस जातिके अनुसार करना चादिये ? तथा वास्तवमें वह किस वर्णका है) यह केसे जाना जाय ? एवं किस तरह और किस जातिकी कन्याके साथ उसका विवाह करना चाहिये ? यह मुझे बताइये ॥ रर ॥ सीष्मस उवाच आत्मवत् तस्य कुर्वीत संस्कार स्वामिवत् तथा । त्यक्तो मातापितृभ्यां यः सबण प्रतिपद्यते ॥ २३ ॥ भीष्मजीने कद्दा--बेटा जिसको साता-पिताने त्याग दिया हैः वह अपने स्वामी (पाठक) पिताके वर्णकों प्राप्त होता है । इसलिये उसके पालन करनेवालेको चाहिये कि वह अपने ही वणके अनुसार उसका संस्कार करे ॥ २३.1) तट्ोचब्थुजं तस्य कुर्यात् संस्कारसच्युत । अथ देया तु कन्या स्यात् तट्र्णस्य युधिष्टिर ॥ २७४ ॥ धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले युधिष्टिर पाठक पिताके सगोन्न बन्घुआँका जैसा संस्कार होता हो वैसा ही उसका भी करना चाहिये तथा उसी वर्णकी कन्याके साथ उसका विवाद मी कर देना चाहिये | रूँए ॥ ः खंस्कतु वर्णगोत्र॑ च॒ मातवर्णवित्तिश्यये । कानीनाध्यूढ जौ वापि विज्ञेयी पुत्र किल्बिषो ॥ २५ ॥ - बेठा | यदि उसकी माताके वर्ण और गोचका निश्चय हो जाय तो उस बाठकका संस्कार करनेके लिये माताके ही वर्ण और गोत्रको ग्रहण करना चाहिये । कानीन और अध्यूढज-ये दोनों प्रकारके पुत्र निकृष्ट श्रेणीके दी समझे जाने योग्य हैं ॥ २५ ॥। तावपि स्ाविव खुतों संस्कायौविति निश्चय । श्ेत्रजो वाप्यपसदो ये5ध्यूढास्तेषु चाप्युत ॥ २६ ॥ आत्मवद् वै प्रयुज्ीरच् संस्कारान् घ्राह्मणादयः । घर्मघाख्रेषु वर्णानां . निश्वयो5यं प्रददयते ॥ २७ ॥ . एतत् ते सर्वमाख्यातं कि भूयः श्रोतुमिच्छसि॥ २८ ॥. इन दोनें प्रकारके पुर्घॉका भी अपने ही समान. संस्कार करे-ऐसा दास्त्रका निश्चय है ।-्राह्मण..आदिको चाहिये कि वे क्षेत्रज ...अपसद..तथा. अध्यूढ-इन सभी प्रकारके पुंका अपने ही समान संस्कार करें । वर्णोके संस्कारके सम्बन्ध धर्मशास्त्रीकी ऐसा ही निश्चय देखा जाता है । इस प्रकार मैंने ये सारी बातें तुम्हें बता्यी । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २६-२८ ॥ .. इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधघर्म पवणि विवाह घर्मे पुन्रप्रतिनिधिकथने एंकोनपब्चाशतभी 5ध्याय ॥४९॥ इस प्रकार श्रीमहामारत अनुशासनपर्दके अन्तर्गत दानघर्मपदमे दिवाहधर्मके प्रसज्ञमें पुत्र्नतिनिधिकथननिषय्क उनचातवों अध्याय परा हुआ | झ्त प्यारात्तमो5प्यायः कि गोओकी महिमाके प्रसज्जमें च्यवन मुनिके उपाखउ्यानका आरम्भ सुनिका मत्स्थोंके साथ जालमें फॉसकर जलसे बाहर आना युधिष्टिर उवाच द्धने कीदराः स्नेहः संवासे च पितामह | महाभाग्यं गर्वा चेव तनमे व्याख्यातुमदंखि .॥ १ ॥ युधिष्टिरने पूछा--पितामद्द किसीको देखने और उसके साथ रहनेपर कैसा स्नेह होता है? तथा.गोऑका माहात्म्य कया है? यह सुझे विस्तारपृवक बतानेकी कृपा करें ॥ सीष्म उवाच हन्त ते कथयिष्यामि पुरादृत्ते महादुते । चल नटुषस्प च खसवाद सहपरच्यवतलस्य च ॥ ने ॥ भीष्मजीनें कहा--मददातिजस्वी नरेश इस विषयसें मैं... तुमसे-सदर्षि ड्यवन और नहुषके संवादुरूप प्राचीन इतिहालका _बर्णन करूँगा ॥ २ ॥ पुरा. महर्षिदच्यंवनो भागवों भरतषभ । उदवासऊतास्म्भो वभूव से महावतः ॥ ३ ॥ भरतश्रेष्ट पूर्वकाठकी वात हैः भरगुके पुर महर्षि च्यवनने . मद्दान् त्रतंका आश्रय ले जछके भीतर रहना आरम्म. किया ॥ ..
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