निति वाक्य अमृत | Neetivakyamrit

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Neetivakyamrit by गणेशप्रसाद जी वर्णी - Ganeshprasad Ji Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ ] हानि, शौच व गृहप्रवेश, व्यायामसे लाभ, निद्रा-लक्षण,लाभ, स्वास्थ्यो पयोगी कर्तव्य, स्नानका रदुदेश्य- लाभ-आादि, आहार संवंधी सिद्धान्त, सुखमा प्तिका ढपाय, इन्द्रियोंको कमजोर करने वाला कार्य , ताजी इवासे लाभ, निरन्तर सेवन-योग्य वस्तु, सदा बैठने व शोकसे हानि, शरीररूप गूडकी शोभ', 'अविश्व- सनीय व्यक्ति, इश्वर स्वरूप व उसकी नाममाला । २३-३३० शनियमित समयमें च विज्नस्वसे काय करनेमे क्षति, आत्मरक्ता, राज-ऊतंव्य, राजसभामें प्रविष्ट होनेके योग्य व्यक्ति, विनय, स्वय' देश्वरेख करने लायक कार्य, छुसंगतिका त्याग, दिंसाप्रवान काम- कीड़ाका निषेध, परस्त्रीके साथ माठृमणिनी-माव, पृछयोंके प्रति कतेव्य, शत्रुस्थानमें प्रविष्ट होनेका चिपेव, रथ-त्राहि सबारी, अपरीक्षित स्थान आदिमें जानेवा निषेध, अगन्तव्य स्थान, उपासनाके अयोग्य पदाथे, कंठत्य न करने लायक विद्या, राजकीय प्रस्थान, भोजन बस्त्रादिकी परीक्षा, कठेव्य- सिद्धिकी बेला, भोजन-आदिका समय, इंश्वरभक्तिका असर, का्यंसिद्धिके प्रतीक, गमन व प्रस्थान इश्वरोपासनाका समय, राजञाका जाप्यमंत्र, भोजनका समय, शक्ति-्दीनका कामोद्दीपक आदर, त्याद्य स्त्री, योग्य प्रक्मत्ति वाले दम्पतियोंके प्रणयकी सफलता, इंन्द्रियोको प्रसन्न रखनेके स्थान,उत्तम वशीकरण, उसका उपाय, मलमूत्रादिके बेग-तिरोधसे दानि, विषयभोगके 'अयोग्य काल-दोन्र, छुन्नवधूके सेवनका अयोग्य समय, परस्त्री त्याग, नैतिक वेष-भूषाव 'छाचरण, अपरीक्षित व्यक्ति या बसतुझा राजगृहमें प्रवेश-आदिका निपेष सदष्दान्त तथा सभी पर अविश्वाससे हानि ३३१-१३४ २६ सदाचार-समुद्देश-- ३३६९-३४ उत्यधिक लोभ, आल्स्य व चिश्वाससे क्षति,बलिष्ठ शत्रू,-झत आाक्रमणुसे बचाव, परदेश-पत पुरुषका दोप, '्न्याय-वश प्रतिष्ठा-द्दीन व्यक्तिकी हानि; व्याधि-पीढ़ित व्यक्तिके काय, धार्मिक महत्व, वीमारकी श्रौपधि, भाग्य गाली पुरुष, मूर्गंके कायं, भयकालीन कतेंब्य, धनु्धारी व तपस्त्रीका कतेच्य, छातप्नताका दुष्परिणाम, हितकारक वचन, दृष्टोंके काय , लचंमीसे विमुख एव' नंशब्द्धिमे 'समथे पुरुष, उत्तम दान, उत्साइसे लाभ, सेवकके पापक्मंका फल, दुःखका कारण, छुसंगका त्याग च्षथणिक'चित्ततालेका प्र म, उतावलेका पराक्रम, शत्रु -निमरहका उपाय एव” राजकीय अनुचित क्रोघसे हानि, रुइन व शोकसे हानि, सिन्‍्य पुरुष, स्त्रगें-च्युतका प्रतीक, यशस्वीकी प्रशंसा, ऐथ्वीतल्लका भाररूप, सुखप्राधिका उपाय (परोपकार), शरणागतके प्रति कतेव्य-झादि ३३६-१४१ गुणगान-शुन्य नरेश, छुटुम्ब-संरक्षण, परस्त्रो व परधनके संरक्षणका दुष्परिणाम, अनुरक्त सेवकके अ्रदि स्वामी-क्रतैठ्य्र, स्याज्यसेवक, न्यायोचित द डविधान, राजकतंव्य; वक्ताके बचन, व्यय, वेप-भूषा, स्वाग, कार्य-झारम्भ, सुखप्राप्तिका ढपाय, 'अघमपुरुष, मयादा-पाल्न, दुराचार-सदाचारसे दानि-लाभ सर्वत्र संदिग्ध व्यक्तिकी हानि, उत्तम भोज्य रसायन, पापियोंकी दृत्ति, पराधीन सोजन, निवासयोग्य देश, जन्मान्ध, न्राह्मण, निःस्पृह, दुमखका कारण, उच्चपदकी माप्ति, सच्चा शाभूषण, राजमेंत्री; दुष्ट और यौचकों श्रति कतंव्य, निरथैक स्तरामी,राजकीय सत्ययज्ञ तथा से न्य-शक्तिका सदुपयोग द४र-२४४५ २७ व्यवहार-समददेश-- ३४१६-४७ मलुष्योंका दृढ़ बन्वन, 'अनिवायें पालन पोषणके योग्य व्यक्ति, तीधै-सेवाका फल; तीथ - चासिंयोंकी प्रकृति, निन्यय स्वामी, सेवक, मित्र, स्त्री, देश, बन्घु, ग्रदस्थ, दान, आदर, मेंस,




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