ओस की बूँदें | Oos Ki Boonden

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Oos Ki Boonden by प्रहलाद शर्मा - Prahalad Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पु ः छोसकी ह्ँ स्नान बस्तु अदेय है जिसके लिये मुख मूल से भी अधिक बढ़ां रहे हो...साथ तो चलेँगी ही फिर सी भी कहना चाहो तो परिस्थिति प्रतिकूल नहीं । ना...ना इतना शीघ्र बताने का नहीं ...झनुमान के चक्कर में भटको ...सुके श्यानन्द ही मिलेगा कहकर वि उठ चला । श्रचेना सोचने की मुद्रा में ही पीछे हो ली | इँची पगडन्डी पर छोटे शिला खण्ड से छेड़ खानी कर चलते हुए झवि को चेना ने टोका-- कलका चलना निश्चित है न...? ... तुम भी लखनऊ ठहदरोगे सं... पिताजी ने बहुत आश्रह किया है. मैं वहाँ रुकने वाला नहीं --अधि ने कहा-- कहते हैं अपनी सरहद में गंदड़ भी शेर सा खूँखार बन जाता है... फिर वहाँ मेरे किये अपराधों का बदला लोगी तो...मेरा क्या _ हाल होगा. ? ना बाबा...मैं नहीं जाने का । ...सुनकर चना हँस पड़ी-- मुक्ते पल भर भी कभी अपने पर हासी होने का अवसर दिया है क्‍या ...? श्रवि रे सचमुच बद्द बड़े भाग का. दिन होगा ...जब तुम चना की सत्ता मान अपने को तनिक देर भी हीन अनुभव कर सकोरे...। झबकी षि भी चलते- चलते पीछे घूमकर खड़ा हो गया छातंना के मुख की गम्भीरता से चिंतन कर शायद वह झनुमान लगाने लगा कि वस्तुतः झ्चेना सत्ता की भूखी है या फिर यों ही उसने कह दिया |




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