जय - पराजय | Jay Parajay

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Jay Parajay by डॉ. ब्रज मोहन गुप्त - Dr. Braj Mohan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरा माग्य यह फैसला दै चुका था कि मेरा विद्यार्थी जीवन सदा के लिए समाप्त हो चुका है श्रौर इस बात का मुक्ते केवल थोड़ा रंज नहीं था । मैं सोचता था श्रब प्रयाग न जाने कब श्राना हो क्योंकि मेरे लिए रेल ने प्रयाग श्रौर देहरादून का फासला कुछ भी कम नहीं किया था | ध्यान आता यहाँ के मित्रों श्रौर परिचितों से न जाने कब मिलना हो । जयन्त जी सकुटम्ब प्रयाग ही रहते थे । रंजस को बनारस जाना था श्रौर उसका छुट्टियों में भी दो बार प्रयाग आने का प्रोग्राम था | मेरे कनसेशन टिकट के साथी छुब्बीस श्रप्रैल को जा रहे थे त्और सुकते भी उन्हीं के साथ जाना था | रंजन ने पच्चीस प्रेल को जाने का प्रोग्राम बनाया + उसकी गाड़ी शाम की पाँच बजे जाती थी। उस दिन सुबह ही से मैं और जयन्त जी रंजन के यहाँ चले गए थे श्रौर जो थोड़ा बहुन सामान उसे साथ ले जाना था बैँधवा कर ठीक करा दिया था | जयन्त जी तीन बंजे घर लौट गए. थे। मैं रंजन को छोड़ने स्टेशन आया । गाड़ी छूटने से कोई पन्द्रह मिनिट पूर्व जयन्त जी भी स्टेशन झा गये । जब गाड़ी छूठ चुकी तो उन्होंने मुझसे पूछा कल शाम की गाड़ी से जाना है या रात की गाड़ी से राज का सारा दिन ख़राब हो गया कुछ भी कार्य नहीं हुआ श्रगर शाम की गाड़ी से गए श्रौर झ्रवसर मिला तो स्टेशन श्राउँगा मैंने रात की गाड़ी से जाना निश्चय किया है। इसमें क्या तकल्लुफ है श्राप कष्ट न करें मैंने विनीत भाव से उत्तर दिया । का सात प्-न्ज




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