उपहार | Upahaar

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Upahaar by बेढब बनारसी - Bedhab Banarasi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपहार श्० तो नींद ही नहीं आ रही है। कभी आप छतकी कड़ियाँ गिनते हैं कभी चादरकी शिकन गिनते हैं कभी अलजबराके प्रश्न हल करने लगते हैं । दाढ़ी और प्रेमसे इतना ही साम्य नहीं है । आारंभमें दाढ़ी काली रहती हैं। प्रेम भी यौवनमें वासनापूर्ण होता है। यौबनके श्रेमका अन्तिम ध्येय वासनाके अतिरिक्त श्र क्या हो सकता हे । कमसे कम पार्थिव प्रेम तो एसा होता ही है कदाचित्‌ झुक ऐसा कोई युवक संसारमें हो जो प्रारभसे ही दैहिक भोग बविलासकी आओर दृष्टि न पात करता हो । इसलिए हमें दाढ़ी और प्रेममें बड़ी समता दिखायी देती है। और यह समता यही नहीं समाप्त होती । ज्यों-ज्यों दाढ़ी समयुके पथपर बढ़ती जाती है उसका कालापन दूर हो जाता है ्यौर ऊृष्णपद्त समाप्त होकर झुक्कपक्षके सुघाकरके समान उसमें प्रकाशकी किरणों फूटती हैं । उच्ली प्रकार प्रेमपर भी ज्यों-ज्यों पुरातनपनकी मुहर लग जाती है । वह घुलता जाता है और वह लौकिक प्रेमसे उठकर देशप्रेम विर्वप्रेम भगवदू भक्तिकी ओर उन्मुख होता जाता है। प्रेम भी समय- की गति पाकर उउज्यल हो उठता है। यदि वह क्षणिक वासनाका ज्यर न हुआ तो जिस प्रकार यौवनकी भकरबैरीकी भाड़ा सम न दाढ़ी प्रौद़ावस्थामें रेशमके लच्छेके समान कोमल हो जाती है और उसी प्रकार प्रेम भी लौकिक धघरातलसे उठकर ऐशइवरीय गसरगिक बन जाता है। कुछ ऐसा जान पढ़ता है कि दाढ़ी रखनेवालोंकी इश्वरसे अधिक निकटता होती है। भक्ति-जो प्रेम रसकी ही गाढ़ी चाशसी है -- और दाढ़ी का गहरा संबंध है। अच्छी दाढ़ी रखनेवाले जीव भक्त होते हैं । इसमें उन लोगोंको छोड़ दीजिये जो शौकिया दाढ़ी रखते हैं और उसे अनेक कोनोंसे अनेक रूपों में काट छाटकर ठीक करते हैं । बाबा नानक बड़े भक्त थे इसमें किसको संदेह हो सकता है । रघिबावृ सी० एफ० एंड ज डाक्टर भगवानदासकी इश्वर-भक्तिमें किसको




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