निबन्ध - पूर्णिमा | Nibandh-purnima

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बालकृष्ण भट श (१६० १-१६७१) सुख क्या है ? सुख के सम्बन्ध मे आधुनिक वेदान्तियो का तो सिद्धान्त ही निराला है जिन्होंने व्यास-कृत प्राचीन वेदान्त दर्शन के जो कुछ उत्तम सिद्धान्त थे कि सुख- दुख मे एक-सा रहना सुख मे फुल न उठना दु ख मे घबडाय नही सो न कर छिपे नास्तिक ये वेदास्ती अब मानते हैं कि सुख-दुख पाप-पुर्य बुरा-भला दोनो एक है और दोनो बडे बन्धन हैं । पाप-पुराय दोनो शरीर करता है आत्मा गुद्ध और निलप है इत्यादि । खैर वेदान्तियों के ये कच्चे सिद्धान्तो को अलग रख हम यहाँ पर आज विचार किया चाहते हैं कि सुख क्या है ? लोग कहते हैं इन पर भगवान की कृपा है ये बड़े सुखी हैं । पर इसका कोई ठीक निद्चय अब तक न हुआ कि सुख क्या वस्तु है जिसके लिये ससार भर ललचा रहा है। कोई बडे परिवारी और बढे हुए कुनबे को सुख की सीमा मानते हैं । कन्न्चे-बच्चे लडके-बालो से घर भरा हो एक इधर रोता है दूसरा उधर पडा चिल्ला रहा है सब ओर किच-पिच गुल-श्ोर मच रहा है। एक बाबा की दाढ़ी खसोटता है दूसरा कान मीजता है तीसरा गोद मे चढा बैठा है चौथा सामने पड़ा मचरल रहा है बाबा बेवकूफ मनीमन फुटेहरा से मगन होते जाते हैं और अपने बराबर भाग्यमान और धन्य किसी को नही मानते । कोई-कोई इसी को बडा सुख मानते हैं कि अनगिस्ती रुपया पास हो उलट-पुलट बार-बार उसे गिना करे न खाये न खरचे साँप बने बैठे-बैठे ताकते रहैं । जैसे हो तैसे जसा ज़ुडती रहै बात जाय पत जाय लोक मे निन्‍्दा हो कोई कितना ही भला बुरा कहे पर गॉठ का पैसा न जाय । तुम उसके रुपये या फाइदे में खलल अन्देज न हुए हो चाहो तुम्हारा जैसा बदकार कम्बख्त अपाहिज दूसरा




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