योग - मनोविज्ञान | Yog - Manovigyan

Yog - Manovigyan by शांति प्रकाश आत्रेय - Shanti Prakash Atreya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भमिका 8 पातजल सिद्धान्त के भ्रनुसार सम्प्ज्ञात समाधि से श्रसप्रज्ञात समाधि से भ्रारूढ होने के प्रसंग में चित अचितु ग्रत्थिमेद होना शुरू हो जाता झ्रौर विवेक ख्याति का सागे॑ खुल जाता हूं। विवेक सागं मे चलते चतते पुरुष ख्याति शोर तन्सूलक गुण वेतुष्णय रूप पर वेराग्य का उदय होता है । श्रत्त में उसका भी निरोध होकर घममेघ समाधि की प्राप्ति होती हैं भर कैवल्य का लाभ होता है । प्राचीन जौद्ध साधना मे प्रसिद्ध है कि निर्वाण के माग॑ मे भी उपचार समाधि के माध्यम से ही जाना पड़ता है । कहा गया है कि भवाग स्रोत के सुत्र का उच्छेद होने पर काम धातु का विदिष्ट कुशल चित कुछ क्षणों के लिए क्षखिक परिणाम का अनुभव करता है। एक-एक क्षण का परिणाम जवन नाम से प्रसिद्ध है । तदनुसार मोत्रमू जवन म्रस्तिम क्षण का नाम है। इसका प्रालम्बन निर्वाण है । परिकम श्ौर उपचार अवस्था पहले थी झब लोकिक चेतना जे लोकोत्तार चेतना का विकास हुआ । जो पहले पथगूजन था वह इस समय द्राय रूप से परिणत हुआ . गोश्रमू के परवर्ती क्षण का नाम है भ्पंण लखा यह क्षण चेतना दे परिवतेन का सुचक है । यथार्थ (.-000४651070 या. 11 ८0500 5. 107 इसा का स्वरूप है । पावजल योग में इसका झारभ होता है संप्रज्ञात तथा. अ्रसप्रज्ञात मुमियो के सन्धिक्षण श्र्यात्‌ अस्मिता भूमि के श्रतिम क्षण मे । भ्रविद्याका्य अस्मिता रूपी द्वार से ही जीव को ससार में भोग के लिए प्रवेश करना पडता है । अझनस्तर भोग भूमि ससार से श्रपवर्ग के लिए निर्गम भी होता है । उसी अझस्मितारूपी द्वार से हो । उस समय विवेक ख्याति की सूचना होती है । जैसे जैसे भ्रर्मिता टूटने लगती है उसी मात्रा से चित रुप पुरुष का स्वस्वरूप में भ्रवस्थान सनिहित होने लगता है । २२ ति भ्रध्याय मे व्यक्तित्व का विचार किया गया है। प्रन्यकार ने दर्साया है कि व्यक्तित्व का झाधघार स्थूल शरीर नहीं है किन्तु सुक्ष्म दारीर है । मावेरधि--वासित लिंगमु -यह साख्य सिद्धान्त है। प्रत्येक पुरुष का उपाधिस्वरूप यह लिंग कैवल्य पयन्त रहता है । यह प्रत्येक पुरुष में भिन्न-भिन्न है । साख्यहृष्टि से पुरुष अनन्त है झर्थात्‌ नाना है । केवलावस्था में भी वे झलग- अलग ही रहते हैं । न्याय वेद्ीषिक दृष्टि से भी श्रात्मा नाना है । भक्त होने पर भी यह नानात्व हटवा नहीं है। वंदेषिक झाचायों ने सुक्त आत्मा मे एक चिद्षेष पदार्थ का स्वीकार किया है जिसपे प्रत्येक श्रात्मा झलग-भ्लग अर्थात्‌ परस्पर विलक्षण प्रतीत होता है। उस मत के श्रनुसार मन में भी विदेष है। मन नित्य है भोर भ्नेक है । मुक्तावस्था मे भी मन का चिंशेष विद्यमान रहता है । तात्पये यह है कि मुक्ति मे भी जिस झात्मा का जो मन




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