नटनागर - विनोद | Natnaagar Vinod

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१०. ) साथ सितार भी बजाते जाते थे। आगे हम इनके साहित्यिक #+ ही वातावरण का दिग्दशंतन करावगे । मिमगनयागतयुत्यााणना ३---बाबा श्रपदास मालवा-प्रान्त में श्रपदास नाम के एक दादूपन्थी साघु थे । ये संस्कृत के बहुत अच्छे परिडत थे। साहित्य-शास्त्र में भी इनका अच्छा प्रवेश था । साधु होने के कारण धमे-शास्त्र में तो ये पारंगत थे ही। बाबा जी कवि भी थे । पारडव-यशेन्दु चन्द्रिका ग्रंथ इन्होंने बड़े परिश्रम से बनाया और उसकी कविता भी अच्छी है। रतलाम सीतामऊ और सेलाना द्रबारों में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। बाबा जी के राजनीति में भी दखल था इनकी कविता कुछ रूखी हाती थी । सीतामऊ के महाराज कुमार रतनसिंह जी इनको अपना गुरु मानते थे । इन पर उनकी बहुत अधिक भक्ति थी। हिन्दू-घर्म-शास्त्र के अनुसार इंश्वर का एवं गुरु का पद बराबर है। इनके प्रति राजकुमार की श्रद्धा का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे श्रूपदास जी को इश्वर का अवतार मानते थे। राजकाज करते समय भी बाबा जी को अपने बराबर आसन देते और उनकी चरणरज के मस्तक पर धारण करते थे । राजकुमार के सम्पूण जीवन पर श्रपदास जी का बहुत बड़ा अस्ाव था । जब श्रपदास जी सीतामऊ से बाहर रहते तब इनके और श्रपदास जी के बीच में पत्र-व्यवह्ार जारी रहता था । अधिकांश में यह पत्र-च्यवह्ार पद्य- मय होता था । इस पत्र-व्यवहार के पढ़ने से बड़ा मनोरझ्न हा हे टी राजकुमार की प्रगाढ़ गुरु-भक्ति का अच्छा परिचय लता




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