कविता - कौमुदी | Kawita Kumudi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11.04 MB
कुल पष्ठ :
474
श्रेणी :
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No Information available about रामनरेश त्रिपाठी - Ramnaresh Tripathi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)९३ संसार के पदार्थो झर घटनाओं को सभी देखते हैं. परन्तु जिन छाँखों से उन्दें कवि देखता है थे निराली हो होती हैं । संचार के लिये पद्दाड़ी के भीतर से झाती हुई नदी एक नदी है कवि के लिये उस श्वेतवह्मां शोमायुक्त लाजबती का नाचता दुआ शरोर श्उंगार की रंगभ्ूमि है । आँख बहो पर चितबन में भेद है । बिद्दारी ने यद्द ते खच कहा है-- झनियार दीरघ नयन किती न तरुनि | वह खितवन कछु और है. जिदि बस दोत खुज्ञान ॥ किन्तु बिहारी ने इस रखीले दोहे में केवल बाहरी शाँखों हो के रस का वर्णन किया--झऔर वद्द भी श्रघूरा । वास्तव में वश करने वाली आँखों में इतना भेद॒नददीं होता जितना वश होने वाली झाँखों में । होरे को परख जौहरी की आखे करती हैं कुब्ज्ञा के सोन्द्य्यं की पह्चिचान रख प्रवीण कृष्ण हीछादोतीहे पदार्थ रूपी चित्रा में चितरे के हाथ की महिमा कवि की हो झाँखे पद्चानती हें प्राकृतिक दैवी खक्ीत उसी के कान खुनत हैं । विज्ञानवसा पदार्थों के बाइरी झंगो की छानबीन करता है श्रौर उनके झवयवो का सम्बन्ध ढूढ़ता है नीतिश उनसे मचुप्य समाज के लिये परिणाम निकालता है किन्तु उनके शांतरिक सौन्दर्य की झोर कवि हो को लक्ष्य रहता हे । वैज्ञानिक झर नीतिश भी जैसे जैसे झपने लय की खोज में गदर डूबते हैं वैसे वैसे कवि के समीप पहुंचते जाते हैं । सभी श्र शास्त्रों का झन्त और उनकी सफलता कथिता में लोन होने दी में दे । कवि के खस्बन्ध में कद्दा है -- ज्ञानात यन्न चन्द्राकों जानन्त यन्न ये । जानी यन्न भरगोपि तज्ञानाति कवि सवयसू ॥
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